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________________ शुद्धभाव अधिकार १२९ एदे सव्वे भावा ववहारणयं पहुच्च भणिदा हु । सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा ।। ४९ ।। एते सर्वे भावा व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः खलु । सर्वे सिद्धस्वभावाः शुद्धनयात् संसृतौ जीवाः । । ४९ । । निश्चयव्यवहारनययोरुपादेयत्वप्रद्योतनमेतत् । ये पूर्वं न विद्यन्ते इति प्रतिपादितास्ते सर्वे विभावपर्यायाः खलु व्यवहारनयादेशेन विद्यन्ते । संसृतावपि ये विभावभावैश्चतुर्भिः परिणताः सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सर्वे भगवतां सिद्धानां शुद्धगुणपर्यायैः सदृशाः शुद्धनयादेशादिति । मिथ्यादृष्टियों को आत्मा शुद्ध है या अशुद्ध है ह्न इसप्रकार की विपरीत कल्पनायें निरन्तर हुआ करती हैं; किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव को ऐसा निश्चय होता है कि कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व ह्न दोनों शुद्ध हैं। इसप्रकार परमागम के अनुपम अर्थ को जो सम्यग्दृष्टि जीव सारासार की विचार वाली बुद्धि से स्वयं को जानता है; हम सब उसकी वंदना करते हैं। इस छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव अपेक्षाओं को न समझने के कारण आत्मा शुद्ध है या अशुद्ध ह्र इसप्रकार के विकल्पों में उलझे रहते हैं; परन्तु सम्यग्दृष्टि जीवों को स्याद्वाद में प्रवीणता होने से वे जानते हैं कि कारणसमयसार (त्रिकाली ध्रुव आत्मा) और कार्यसमयसार (अरहंत-सिद्ध भगवान) ह्न दोनों ही शुद्ध हैं । इसप्रकार सार और असार को जानने की बुद्धि के धनी ज्ञानियों की हम वंदना करते हैं ।। ७२ ।। विगत गाथा में सिद्धों के समान संसारी जीव भी स्वभाव से शुद्ध ही हैं ह्न यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में उक्त तथ्य को निश्चय - व्यवहारनय की भाषा में प्रस्तुत करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) व्यवहारनय से कहे हैं ये भाव सब इस जीव के । पर शुद्धनय से सिद्धसम हैं जीव संसारी सभी ॥ ४९ ॥ उक्त सभी भाव व्यवहारनय से संसारी जीवों में कहे गये हैं, किन्तु शुद्धनिश्चयनय से तो संसार में रहनेवाले सभी जीव सिद्धस्वभावी ही हैं, सिद्धों के समान ही हैं। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यह कथन निश्चय-व्यवहारनयों की उपादेयता का प्रकाशन करनेवाला है। पहले जिन विभाव पर्यायों के बारे में ऐसा कहा गया था कि वे विद्यमान नहीं हैं; वे सब विभावपर्यायें व्यवहारनय की अपेक्षा से देखें तो विद्यमान ही हैं । इसीप्रकार जिन औदयिकादि विभावभाववाले जीवों को व्यवहारनय से संसारी कहा गया था; वे सभी संसारी शुद्धनय से शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायवाले होने से सिद्धों के समान ही हैं।' ""
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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