SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ नियमसार अयं च कार्यकारणसमयसारयोर्विशेषाभावोपन्यासः । निश्चयेन पंचशरीरप्रपंचाभावादशरीराः, निश्चयेन नरनारकादिपर्यायपरित्यागस्वीकाराभावादविनाशाः, युगपत्परमतत्त्वस्थितसहजदर्शनादिकारणशुद्धस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानज्योतिरपहस्तितसमस्तसंशयस्वरूपत्वादतीन्द्रियाः, मलजनकक्षायोपशमिकादिविभावस्वभावानामभावान्निर्मला:, द्रव्यभावकर्माभावात् विशुद्धात्मान: यथैव लोकाग्रे भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिनस्तिष्ठन्ति, तथैव संसृतावपि अमी केनचिनिश्चयबलेन संसारिजीवाः शुद्धा इति । (शार्दूलविक्रीडित) शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्यादृशि प्रत्यहं शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यदृशि प्रत्यहम् । इत्थं य: परमागमार्थमतुलं जानाति सदृक स्वयं सारासारविचारचारुघिषणा वन्दामहे तं वयम् ।।७२।। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यह कार्यसमयसार और कारणसमयसार में कोई अन्तर न होने का कथन है। जिसप्रकार लोकाग्र में सिद्ध भगवान निश्चय से पाँच शरीरों के प्रपंच के अभाव के कारण अशरीरी हैं, नर-नारकादि पर्यायों के त्याग-ग्रहण के अभाव के कारण अविनाशी हैं, परमतत्त्व में स्थित सहजदर्शन-ज्ञानरूप कारणशुद्धस्वरूप को युगपद जानने में समर्थ सहजज्ञानज्योति के द्वारा जिसमें से समस्त संशय दूर कर दिये गये हैं ह्न ऐसे स्वरूपवाले होने के कारण अतीन्द्रिय हैं, मलजनक क्षायोपशमिक विभावस्वभाव के अभाव के कारण निर्मल और द्रव्य-भावकर्मों के अभाव के कारण विशुद्धात्मा हैं; उसीप्रकार संसारी जीव भी किसी नय के बल से शुद्ध हैं।" इस गाथा और उसकी टीका में मात्र इतना ही कहा गया है कि जिसप्रकार सिद्ध भगवान पाँच शरीरों से रहित होने के कारण अशरीरी, नर-नारकादि पर्यायों के ग्रहण-त्याग से रहित होने के कारण अविनाशी, संशयरहित प्रत्यक्षज्ञान के धारी होने से अतीन्द्रिय, विभावस्वभाव के अभाव के कारण निर्मल और द्रव्य-भावकर्म के अभाव के कारण विशुद्धात्मा हैं; उसीप्रकार संसारी जीव भी परमशुद्धनिश्चयनय से सतत शुद्ध ही हैं ।।४८।। इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) शुद्ध है यह आतमा अथवा अशुद्ध इसे कहें। अज्ञानि मिथ्यादृष्टि के ऐसे विकल्प सदा रहें। कार्य-कारण शुद्ध सारासारग्राही बुद्धि से। जानते सद्दृष्टि उनकी वंदना हम नित करें||७२।।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy