SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 27 26 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व रूप में तथा हेय-उपादेय के रूप में विभाजन कर लेता है। इसके लिये आत्मार्थी को छह द्रव्यों की वास्तविकता अर्थात् 'उत्पाद-व्यय-ध्रोव्य युक्त सत्' के आधार से सबके स्वतंत्र परिणमन का स्वभाव समझ में आ जाता है। परद्रव्यों के परिणमनों के फेरफार (परिवर्तन) करने संबंधी मिथ्याश्रद्धा का स्वरूप भी समझ में आ जाता है। पर के प्रति कर्तृत्व बुद्धि का अभिप्राय भी ढ़ीला (कमजोर) पड़ जाता है। स्वद्रव्य की शुद्धि, निराकुलता रूपी सुख व शान्ति प्राप्त करने के लिये मात्र अपने स्वद्रव्य (अपने आत्मद्रव्य) में से ही अपने आपको सीमित कर लेता है। अपने सुख को अन्य कहीं से भी अर्थात् परद्रव्यों अथवा इन्द्रिय विषयों से प्राप्त करने के विकल्पों के प्रति उत्साहवान नहीं रहता तथा उन चिन्ताओं से भी अंशत: निर्भार हो जाता है और ऐसे विचारों की निरर्थकता समझने से ऐसे विकल्पों में कर्तृत्वका पृष्टबल ढ़ीला (निर्बल) हो जाने से, शीघ्र मुक्ति मिल जाती है। उपरोक्त निर्णयों पर पहुँचने का श्रेय भी मात्र रुचि की उग्रता को ही है। वह रुचि सततरूप से चली आती है और प्रयोजनभूत विषयों को मुख्य बनाती हुई, आगे बढ़ती जाती है, उसमें अन्य विषय स्वयं गौण होते जाते हैं, फंसने नहीं। परद्रव्यों की कर्तृत्वबुद्धि तोड़ने में तथा अपने परिणमन में भी पर का अकर्तृत्व स्वीकार करने में आत्मार्थी को सबसे बड़ी कठिनता होती है। "विश्वव्यवस्था में सहजरूप से (बिना कर्तृत्व के) छहों द्रव्यों के परिणमनों में बनने वाला निमित्त-नैमित्तिक संबंध" इस विषय पर विस्तार से लेखक की पुस्तिका “वस्तु स्वातंत्र्य" एवं सुखी होने का उपाय भाग-१ में चर्चा की गई है, वहाँ से अध्ययनपूर्वक समझकर उक्त शंका को निर्मूल कर लें; क्योंकि जैनधर्म का मूल सिद्धांत "अकर्तावाद" ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध के विषय की विपरीत मान्यता को जड़ मूल से नष्ट कर देता है। निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व स्थूलरूप से भी विचार किया जावे तो जब किसी भी द्रव्य के किसी भी प्रदेश में दूसरे द्रव्य के प्रदेश का प्रवेश ही नहीं है, तब वह कैसे अन्य द्रव्य के कार्य में हस्तक्षेप कर सकेगा। सभी द्रव्यों के द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव भिन्न हैं तथा छह द्रव्यों में पाँच तो अचेतन द्रव्य हैं, वे किसी को जानते ही नहीं तो वह अन्य द्रव्य में परिवर्तन क्यों करेंगे और कैसे करेंगे। इसके विपरीत भी अगर एक द्रव्य के कार्य में निमित्त रूप से कहे जाने वाले अन्य द्रव्य का हस्तक्षेप (परिवर्तन) स्वीकार कर भी लिया जावे तो सभी द्रव्य आपस में लड़ते-झगड़ते रहेंगे, क्योंकि हस्तक्षेप करने का अधिकार तो सबको ही मानना पड़ेगा और समस्त विश्व अशांत हो जावेगा, लेकिन ऐसा तो असंभव है। ऐसी विपरीत मान्यता से जैनधर्म के मूल सिद्धांत ही नष्ट हो जावेंगे। आत्मा का ज्ञायक एवं अकर्तास्वभाव, वस्तुमात्र का अकर्तृत्व एवं उत्पाद-व्यय ध्रुवता स्वभाव, वस्तुमात्र का अनेकांत स्वभाव तथा परमात्मा की सर्वज्ञता एवं वीतरागता के साथ वस्तु के सहज स्वाभाविक क्रमबद्ध परिणमन आदि सभी सिद्धांत समाप्त हो जायेंगे। प्रत्यक्ष विपरीत होने से ऐसे सिद्धान्त कभी भी स्वीकार नहीं किये जा सकते। ___ शंका - लेकिन देखने में तो ऐसा ही आता है कि निमित्तरूप अन्य द्रव्य आया तो ही वह कार्य संपन्न हुआ और कथन में भी इसी प्रकार कहने में आता है। समाधान - उत्तर तो इतना ही पर्याप्त है कि क्या सभी बनने वाले प्रसंग उपरोक्त मान्यता के अनुसार हो ही जाते हैं अथवा कुछ ही सफल होते हुये देखे जाते हैं, बाकी बहुभाग तो निमित्त होने पर भी सफल नहीं होते। इतने मात्र से ही उपरोक्त कथन मान्य नहीं हो सकता। और सिद्धांत तो उपरोक्त मान्यता हो ही नहीं सकती; क्योंकि सिद्धांत वही होता है जो किसी भी काल में खंडित नहीं हो।
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy