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________________ 24 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व जाता है, तब ज्ञान उस ही विषय में रुचि के पृष्टबल द्वारा एकाग्र होकर प्रयोजन प्राप्त करने में सफल हो जाता है। पण्डित बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में कहा भी है “एक देखिये-जानिये-रमि रहिये इक ठौर । समल विमल न विचारिये यही सिद्धि नहिं और ।। प्रायोग्यलब्धि में प्रवेश योग्य निर्णय आत्मार्थी उपरोक्त रुचिपूर्वक जो भी उपदेश प्राप्त करता है और उस पर रुचि सहित गंभीरतापूर्वक विचार, चिंतन, मनन तथा चर्चा वार्ता द्वारा ऊहा-पोह कर, यथायोग्य नयों एवं तर्कों द्वारा युक्तियों के आलम्बनपूर्वक, पूर्वापर अविरोध पूर्वक यथार्थ अनुमान के द्वारा निष्कर्ष प्राप्तकर, उसको वीतरागता की कसौटी पर कसकर एक निर्णय पर पहुँचता है, वह निर्णय ही सर्वोत्कृष्ट महत्त्वपूर्ण होता है। उसकी सम्यक् यथार्थता ही देशनालब्धि की पराकाष्ठा है, क्योंकि उस ही में ज्ञान को एकाग्र होना है और वह ही प्रायोग्यलब्धि के प्रवेश के लिये द्वार है, उस एकाग्रता के फलस्वरूपही करणलब्धि पार कर, निर्विकल्प आनन्द की अनुभूति हो जाना ही देशना की यथार्थता का प्रमाण है। अत: आत्मार्थी उस निर्णय पर किस प्रकार पहुंचा है। उस पर संक्षेप से चर्चा करेंगे। उक्त निर्णय पर पहुँचने की प्रक्रिया आत्मार्थी सर्वप्रथम अपना ध्येय निश्चित करता है कि मुझे तो सिद्ध बनना है। इसके पूर्व उपदेश के ग्रहण, जिनवाणी के अध्ययन एवं अनेक तर्क-वितर्क विचार मंथन द्वारा यह तो निश्चित कर ही चुका है कि सुख तो निराकुलता ही है। आकुलता में रंच भी सुख नहीं है। निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व कषाय की मंदता रूप शुभभाव में भी अर्थात् आकुलता की कमी में भी दुःख का बीज तो जीवित ही रहता है और वह पुन: पल्लवित हो जाता है। इसलिये आकुलता का जड़ मूल से नाश होने पर ही मैं सुखी हो सकता हूँ, अन्य कोई भी उपाय सुखी होने का नहीं है, ऐसा निर्णय जिसने कर लिया हो, वही जीव सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्त करने योग्य पात्र जीवों की श्रेणी में आ सकता है। उपरोक्त निर्णय पर पहुँच जाने वाले आत्मार्थी की रुचि तो उपरोक्त प्रकार का सुख प्राप्त करने के लिये उपायों को खोजने की ओर आकर्षित हो ही जाती है। पूर्व उपार्जित पुण्य के उदय से प्राप्त अनुकूल संयोगों के बीच रहते हुए अथवा पाप के उदय से प्राप्त प्रतिकूल संयोगों के बीच रहते हुये तथा उन संबंधी उत्पन्न होने वाली चिन्ताओं के बीच रहते हुये भी, आत्मार्थी को अगर वास्तविक रुचि जाग्रत हुई है तो वह वास्तविक सुख प्राप्त करने के उपायों को ढूंढने में शिथिलता नहीं आने देता; प्राप्त संयोगों के बीच रहकर रुचि उनमें भी उपरोक्त खोज के लिये समय निकाल लेती है तथा उसके पुरुषार्थ में शिथिलता नहीं आने देती और मार्ग खोजने का कार्य चलता रहता है। उपरोक्त आत्मार्थी वास्तविक मार्ग खोजने के उद्देश्य से रुचिपूर्वक विश्वव्यवस्था एवं वस्तुव्यवस्था को समझता है। उसको समझकर अपने प्रयोजन सिद्ध करने वाले विषयों को छांट लेता है; बाकी रहे विषयों के समझने के समय को रुचि स्वयं बचा लेती है, उनमें उलझने नहीं देती। फलस्वरूप आत्मार्थी बहुभाग ज्ञेय पदार्थ तथा क्षयोपशम बढ़ाने वाले विषयों के समझने के भार से मुक्त हो जाता है। इसकी विस्तार से चर्चा भाग १ में आ चुकी है। तदुपरांत आत्मार्थी प्रयोजनभूत विषयों को स्व और पर के
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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