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________________ जीवन-मरण और सुख-दुःख ५१ विद्यमान है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को लौकिक अनुकूलता एवं प्रतिकूलता अपने-अपने कर्मोदयानुसार ही प्राप्त होती है; उसमें किसी का भी, यहाँ तक कि किसी सर्वशक्तिमान भगवान का भी हस्तक्षेप संभव नहीं और यही न्यायसंगत भी है। 'मैं दूसरों को मारता हूँ या बचाता हूँ अथवा सुखी-दुःखी करता हूँ यह मान्यता अभिमान की जननी है और 'दूसरे जीव मुझे मारते हैं, बचाते हैं, सुखी - दुःखी करते हैं' - यह मान्यता दीनता पैदा करती है, भयाक्रांत करती है, अशांत करती है, आकुलता - व्याकुलता पैदा करती है। अतः यदि हम अभिमान से बचना चाहते हैं, दीनता को समाप्त करना चाहते हैं, आकुलता - व्याकुलता और अशांति से बचना चाहते हैं, निर्धार होना चाहते हैं तो उक्त मिथ्या मान्यता को तिलांजलि दे देना ही श्रेयस्कर है, जड़मूल से उखाड़ फेंकना ही श्रेयस्कर है - सुखी और शांत होने का एकमात्र यही उपाय है। तीर्थंकर भगवान महावीर ने प्रत्येक वस्तु की पूर्ण स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की है और यह भी स्पष्ट किया है कि प्रत्येक वस्तु स्वयं परिणमनशील है, उसके परिणमन में परपदार्थ का कोई हस्तक्षेप नहीं है । यहाँतक कि परमपिता परमेश्वर भी उसकी सत्ता का कर्ता हर्ता नहीं है । जन-जन की ही नहीं, अपितु कण-कण की स्वतंत्र सत्ता की उद्घोषणा तीर्थंकर महावीर की वाणी में हुई है। दूसरों के परिणमन या कार्य में हस्तक्षेप करने की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण है। - मैं कौन हूँ, पृष्ठ - ६० -
SR No.009460
Book TitleNamokar Mahamantra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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