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________________ णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन ५० हैं' - इस विपरीत बुद्धि को छोड़ दो। यदि हम जीवनभर पाप करते रहें, फिर भी कोई हमें उन पाप कर्मों के फल भोगने से बचाले, दुःखी न होने दे, सुखी करदे तो फिर हम पाप करने से डरेंगे ही क्यों ? बस किसी भी तरह हो, उसे ही प्रसन्न करने में जुटे रहेंगे; क्योंकि सुख-दुःख का संबंध अपने कर्मों से न रहकर पर की प्रसन्नता पर आधारित हो गया । यह मान्यता तो पाप को प्रोत्साहित करने वाली होने से पाप ही है। इसीप्रकार यदि हम जीवनभर पुण्य कार्य करें, फिर भी कोई हमें दुःखी करदे तो फिर हम सुखी होने के लिए पुण्य कार्य क्यों करेंगे, बस उसकी ही सेवा करते रहेंगे, किसी भी प्रकार क्यों न हो, उसे ही प्रसन्न रखेंगे । बुरे कार्य करने में हतोत्साहित एवं अच्छे कार्य करने में प्रोत्साहित तो यह जीव तभी होगा, जबकि उसे इस बात का पूरा भरोसा हो कि बुरे कार्य का बुरा फल और अच्छे कार्य का अच्छा फल निश्चितरूप से भोगना ही होगा । इसी बात पर व्यंग्य करते हुए किसी कवि ने लिखा है अरे जगत में वह ईश्वर क्या कर सकता है इन्साफ । अरे प्रार्थना की रिश्वत पर कर देता जो माफ ॥ यदि इस जगत में कोई ईश्वर है और वह पापियों के बड़े-बड़े पापों को भी, प्रार्थना करने मात्र से पापमुक्त कर देता है तो वह दयासागर भले ही कहला ले, पर न्याय नहीं कर सकता है, न्यायवान नहीं है; क्योंकि उसने अपराधी को दंड न देकर स्वयं की चापलूसी करने मात्र से अपराधमुक्त कर दिया, जो सरासर अन्याय है । हम किसी प्राणी को मारा या दुःखी किया तो क्षमा करने का अधिकार भी उसी का है, जिसे हमने कष्ट पहुँचाया है। उसे संतुष्ट किए बिना ईश्वर को किसी को भी क्षमा करने का अधिकार कहाँ से प्राप्त हो गया ? यह क्रिया तो पापों को प्रोत्साहित करनेवाली हुई; क्योंकि फिर कोई पाप करने से डरेगा ही क्यों ? उसके पास तो पापों के फल को बिना भोगे ही बचने का उपाय
SR No.009460
Book TitleNamokar Mahamantra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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