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________________ भक्ति और ध्यान ३५ इन पर से उपयोग को हटाना होगा। आँखों को न बन्द करना है, न खोलना है और न नाशाग्र ही करना है; आँखों में कुछ करना ही नहीं है, उन पर से तो उपयोग हटाना है और आत्मा पर ले जाना है । ऐसी स्थिति में आँखों की स्थिति कैसे रहेगी, क्या चाहे जैसी रह सकती है? नहीं, नाशाग्र ही रहेगी; क्योंकि नाशाग्र होना ही ज्ञानी- ध्यानी की आँख की सहज अवस्था है। आँख भीचने में भी उपयोग लगेगा: और खोले रखने में भी उपयोग लगेगा; पर नाशाग्रता में उपयोग की आवश्यकता नहीं है। उपयोग आँख पर से हटकर आत्मा में चला जावे तो आँख सहज नाशाग्र हो जाती है। आँख नाशाग्र होती है, पर नाक दिखती नहीं; क्योंकि दिखाई तो आत्मा दे रहा है । जब नाक दिखती है तो आत्मा नहीं दिखता और जब आत्मा दिखता है तो नाक नहीं दिखती । छद्मस्थों की यही स्थिति है । अतः यह स्पष्ट है कि नाशाग्रदृष्टि का अर्थ नाक को देखना नहीं है। मैं आपसे पूछता हूँ कि जब भगवान को केवलज्ञान हुआ था, तब वे क्या कर रहे थे ? कुछ नहीं। पर का तो कुछ भी नहीं कर रहे थे; पर अपने आत्मा का ध्यान अवश्य कर रहे थे । तो बस, समझ लीजिए कि पर का कुछ भी करना धर्म नहीं है; क्योंकि पर का करते-करते आज तक किसी को केवलज्ञान नहीं हुआ। आत्मा का ध्यान ही धर्म है, क्योंकि आजतक जितने जीवों को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है, सभी को आत्मा का ध्यान करते-करते ही हुई है। अतः आत्मा का ध्यान ही धर्म है। आत्मा का ध्यान करने के लिए पहले उसे जानना जरूरी है; अतः धर्म करने की इच्छा रखनेवाले को सर्वप्रथम आत्मा को जानने का, पहिचानने का प्रयास करना चाहिए। यही मार्ग है, शेष सब अमार्ग हैं, छलावा मात्र हैं। सभी आत्मार्थीजन निज भगवान आत्मा को जानकर, पहिचानकर, उसका ही ध्यान धरें; - इस पावन भावना से विराम लेता हूँ ।
SR No.009460
Book TitleNamokar Mahamantra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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