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________________ भक्ति और ध्यान और कपिलदेव के ही लगाता है। यद्यपि यह सत्य है कि प्रत्यक्ष उपकारी तो वह प्रशिक्षक ही है, पर उसका आदर्श वह प्रशिक्षक नहीं, विश्वस्तरीय बल्लेबाज हैं। उसका आदर्श वह बल्लेबाज कैसे हो सकता है, जिसका नाम रणजी ट्राफी में भी नहीं आया है, जिले की टीम में भी नहीं आया है ? यद्यपि विश्वप्रसिद्ध बल्लेबाजों से उसका प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं है, वे उसे कुछ सिखाते नहीं हैं, बताते नहीं हैं, सिखा सकते भी नहीं हैं, बता सकते भी नहीं हैं; उनसे उनका पत्र-व्यवहार भी नहीं है, उसने उन्हें साक्षात् देखा तक नहीं है, मात्र टी.वी. पर ही देखा है; तथापि उसके हृदय में बिना किसी अपेक्षा के उनके प्रति उत्कृष्ट कोटि का बहुमान का भाव बना रहता है; क्योंकि वे उसके आदर्श हैं, उसे उन जैसा ही बनना है। क्या उस व्यक्ति का विश्वस्तरीय बल्लेबाजों के प्रति वह भक्ति का भाव स्वाभाविक नहीं है, वैज्ञानिक नहीं है, सहज नहीं है ? यदि है तो फिर निःस्वार्थभाव से की गई जैनियों की भक्ति सहज क्यों नहीं है, स्वाभाविक क्यों नहीं है, वैज्ञानिक क्यों नहीं है ? क्या किसी लौकिक कामना से की गई भक्ति ही स्वाभाविक होती है, सहज होती है ? २५ जैनदर्शन के अनुसार भगवान की भक्ति का उद्देश्य जब उन जैसा बनना ही है, तब उसके प्रति सहजभाव से भक्ति का भाव होना भी अस्वाभाविक कैसे हो सकता है ? जिनसे हमारा प्रत्यक्ष सम्पर्क है, जो हमें तत्त्वज्ञान सिखाते हैं या अन्यप्रकार से हमारा उपकार करते हैं; उनके प्रति किए गए विनयभाव के पीछे कदाचित् हमारा स्वार्थभाव भी रह सकता है; पर जिनसे हमारा कभी सम्पर्क भी न रहा हो, जो हमारा कोई कार्य भी न करते हों; उनके प्रति विनयभाव तो एकदम निःस्वार्थभाव से ही होगा न ? यही कारण है कि जैनियों की भक्ति निःस्वार्थभाव की ही भक्ति होती है और वह सहज ही होती है, स्वाभाविक ही है; इसमें कोई अस्वाभाविकता
SR No.009460
Book TitleNamokar Mahamantra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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