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________________ २४ णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन मानकर अपनी श्रद्धा को विचलित नहीं करना चाहिए । जब जैनियों के भगवान भक्तों का कुछ करते ही नहीं हैं तो फिर उनकी भक्ति लोग करेंगे ही क्यों ? आप निःस्वार्थभाव की भक्ति की बात करते हैं, पर आज निःस्वार्थभाव की भक्ति करनेवाले कितने हैं ? और निःस्वार्थभाव की भक्ति की बात स्वाभाविक भी तो नहीं है, वैज्ञानिक भी तो नहीं है; क्योंकि बिना प्रयोजन तो लोक में कोई कुछ करता देखा ही नहीं जाता । अरे भाई ! स्वार्थपूर्ति के लिए की गई भक्ति भी कोई भक्ति है, वह तो व्यापार है; व्यापार भी हलके स्तर का । लोग भगवान के पास जाते हैं और कहते हैं कि यदि मेरे बच्चों की तबियत ठीक हो गई तो १०१ रुपये का छत्र चढ़ाऊँगा । क्या यह भक्ति है ? जब आप डॉक्टर के पास जाते हैं, तब क्या डॉक्टर से भी ऐसा ही कहते हैं कि आपकी फीस या दवा की कीमत तब दूँगा कि जब मेरे बच्चे की तबियत ठीक हो जावेगी । तुम्हारा तो भगवान पर डॉक्टर के बराबर भी भरोसा नहीं है । यदि होता तो काम हो जाने के बाद छत्र चढ़ाने की बात कहाँ से आती ? भगवान ने कब कहा है कि तुम मुझे छत्र चढ़ाओ तो मैं तुम्हारे बच्चे ठीक कर दूँगा । ये सब अज्ञान की बातें हैं, भक्ति की नहीं। असली भक्ति तो भगवान गुणों में अनुराग का नाम है। कहा भी है, 'गुणेष्वनुराग: भक्ति: '। गुणों में अनुराग तो नि:स्वार्थभाव से ही होता है। सच्चे भक्त भी निःस्वार्थभाव से ही भक्ति करते हैं । निःस्वार्थभाव की भक्ति वैज्ञानिक और स्वाभाविक भी है। इसे हम क्रिकेट के खिलाड़ी के उदाहरण से भली-भाँति समझ सकते हैं। एक व्यक्ति क्रिकेट का विश्व स्तर का बल्लेबाज बनना चाहता है । तदर्थ अभ्यास करने के लिए एक प्रशिक्षक भी रखता है, जो जेठ की दुपहरी की कड़ी धूप में साथ-साथ रहकर उसे अभ्यास कराता है; इस कारण वह उसकी समुचित विनय भी करता है; तथापि उसका चित्र अपने कमरे में नहीं लगाता है। चित्र तो वह अपने घर में विश्वप्रसिद्ध बल्लेबाजों के ही लगाता है, गावस्कर
SR No.009460
Book TitleNamokar Mahamantra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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