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________________ सत्ताकरण बन्ध में अबन्ध की अनुभूति बन्धन तभी तक बन्धन है - जब तक बन्धन की अनुभूति है। यद्यपि पर्याय में बंधन है, तथापि आत्मा तो अबन्ध-स्वभावी ही है। अनादिकाल से यह अज्ञानी प्राणी अबंध स्वभावी आत्मा को भूलकर बंधन पर केन्द्रित हो रहा है। वस्तुतः बंधन की अनुभूति ही बंधन है। वास्तव में 'मैं बंधा हूँ इस विकल्प से यह जीव बंधा है। लौकिक बंधन अधिक मजबूत है, विकल्प का बंधन टूट जावे तथा अबंध की अनुभूति सघन हो जावे तो बाह्य बंधन भी सहज टूट जाते हैं। बंधन के विकल्प से, स्मरण से, मनन से, दीनता-हीनता का विकास होता है। अबंध की अनुभूति से, मनन से, चिन्तन से शौर्य का विकास होता है; पुरुषार्थ सहज जागृत होता है - पुरुषार्थ की जागृति में बंधन कहाँ? प्रश्न - बंधन के रहते हुए बंधन की अस्वीकृति और अबंध की स्वीकृति कैसे संभव है? बंधन है, उसे तो न माने और 'अबंध' नहीं है, उसे स्वीकारे, यह कैसे सम्भव है? उत्तर - सम्भव है। स्वीकारना तो सम्भव है ही, द्रव्यदृष्टि से देखा जाय तो वस्तु भी ऐसी ही है। बंधन तो ऊपर ही है, अन्तर में तो पूरी वस्तु स्वभाव से अबंध ही पड़ी है। उसे तो किसी ने छुआ ही नहीं, वह तो किसी से बंधी ही नहीं। स्वभाव में बंधन नहीं - इसे स्वीकार करने भर की देर है कि पर्याय के बंधन भी टूटने लगते हैं। स्वतंत्रता की प्रबलतम अनुभूति बंधन के काल में संभव है; क्योंकि अन्तर में स्वतंत्र तत्त्व विद्यमान है, पर्याय के बंधन कटने में भी वही समर्थ कारण है। तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-५७, ५८ | • वस्त्र पहिनाया है और बाल दिखाये गये हैं, वहाँ भी कर्मों का बंध एवं सत्ता है। चित्र में जो अनेक छोटे-छोटे गोल दिखाये गये हैं; वे कर्मों के समूह के हैं। २ सत्ताकरण पूर्व-संचित कर्म का आत्मा में अवस्थित रहना सत्ता है। • सत्ता, कर्मबंध की द्वितीय अवस्था/करण है। शुभलेश्या होने पर सत्ता में स्थित साता-वेदनीय आदि समस्त पुण्य प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि (उत्कर्षण) हो जाती है। • अशुभलेश्या होने पर सत्तास्थित सातावेदनीय आदि समस्त पुण्य प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग में हानि (अपकर्षण) हो जाती है। ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की १४८ कर्म-प्रकृतियाँ सत्त्व योग्य हैं। पुण्य प्रकृतियों की संख्या ६८ है और पापप्रकृतियों की संख्या १०० है। यहाँ २० प्रकृतियों की बढ़ोतरी इसलिए हुई है कि स्पर्शादि २० प्रकृतियाँ पुण्यरूप भी हैं और पापरूप भी हैं। जीव के विकारी परिणामों का नैमित्तिक कार्य, कर्मरूप परिणमन है। जीव का विकारी परिणाम कर्मबंध में निमित्त है। तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्ववाले जीव, संसार में नित्यमेव असंख्यात रहते हैं; नरकों में भी असंख्यात हैं और स्वर्गों में भी असंख्यात हैं। जिन जीवों के एक बार मिथ्यात्व का असत्त्व हो जाता है, उनके फिर से मिथ्यात्व का सत्त्व कभी नहीं हो सकता। तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता तीसरे नरक पर्यंत ही होती है। . तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता ऊपर तो सौधर्मादि सभी स्वर्गों में है। . .
SR No.009459
Book TitleNaksho me Dashkaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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