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________________ १४२ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार फिर हम क्यों रोकते ? अरे, भाई! यह निदान नामक आर्तध्यान हैं, जिसका फल शास्त्रों में तिर्यंचगति की प्राप्ति होना बताया गया है। यह तो आप जानते ही हैं कि तिर्यंचगति में निगोद भी शामिल है। हमारी भक्ति तो निष्काम भाव से होना चाहिए। जिसप्रकार वह क्रिकेट सीखने का अभिलाषी बिना किसी आकांक्षा से मात्र भक्तिभाव से ही कपिलदेव और तेन्दुलकर का प्रशंसक है; उसीप्रकार हमें भी भगवान से बिना कुछ माँगे उनकी भक्ति का भाव आना चाहिए । जिन लोगों को यह चिन्ता है कि यदि हम ऐसा कहेंगे कि भगवान किसी से कुछ लेते नहीं है और किसी को कुछ देते भी नहीं हैं तो फिर कौन करेगा भगवान की भक्ति, कौन देगा दान, कौन बनवायेगा मंदिर ह्र ये सभी धर्म काम चलेंगे कैसे ? यदि हम चाहते हैं कि ये सभी कार्य चलते रहें तो हमें यह कहना ही होगा कि यदि तुम भगवान की पूजा-भक्ति करोगे, उनका मंदिर बनवाओगे तो तुम्हें धन की, सम्पत्ति की प्राप्ति होगी, स्त्री- पुत्रादि की अनुकूलता प्राप्त होगी। यदि हमने ऐसा नहीं किया तो सबकुछ चौपट हो जावेगा । अतः हमारा तो यही कहना है कि वस्तुस्थिति चाहे जो कुछ भी हो; कृपया उसे पोथियों में ही रहने दीजिए, अकेले में बैठकर आप पण्डित लोग ही समझते रहिये; समाज को तो यही समझाइये कि ....... । ऐसे लोगों से मैं कहना चाहता हूँ कि हमें समाज चलाना है या आत्मकल्याण करना है; हमें समाज के समक्ष वस्तु के सत्यस्वरूप को प्रस्तुत करना है या धर्म के नाम पर उनसे चन्दा वसूल करना है, उन्हें क्रियाकाण्ड के बाह्य आडम्बर में उलझाये रखना है। अरे, भाई ! अब वस्तु का सच्चा स्वरूप हमारी समझ में आ गया है, हमारे ध्यान में आ गया है; अतः अब हमसे तो ऐसा अनर्थ होगा नहीं । जब लोग वस्तु का सही स्वरूप समझेंगे तो उनके हृदय में भी; उक्त सत्य स्वरूप ह्न जिनकी दिव्यध्वनि में आया है, जिन गुरुओं ने उसे लिपिबद्ध किया है, जिन शास्त्रों में वह लिखा है; उन सबके प्रति अगाधभक्ति का १४३ नौवाँ प्रवचन भाव सहज ही उत्पन्न होगा, उन जैसा बनने का भाव भी जाग्रत होगा; न केवल भाव उत्पन्न होगा, अपितु उसके प्रचार-प्रसार के लिए साधन जुटाने का भी तीव्र विकल्प होगा; परिणामस्वरूप जिनमंदिर बनेंगे, स्वाध्याय भवन बनेंगे, शास्त्र छपेंगे, घर-घर पहुँचाये जावेंगे, पूजा-पाठ होगा; वह सबकुछ होगा जो जिनधर्म की प्रभावना के लिए आवश्यक है। कहीं कोई कमी रहनेवाली नहीं है। इस बात की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है कि यदि हम भगवान को कर्ता-धर्ता नहीं बतायेंगे तो सबकुछ बर्बाद हो जायेगा । आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ने उदाहरण प्रस्तुत कर इस बात को सिद्ध कर दिया है कि वस्तु के सत्यस्वरूप को प्रस्तुत करने से जिनमंदिरों को कोई खतरा नहीं है; क्योंकि निरन्तर अध्यात्मधारा बहने पर भी उनके यहाँ जितना दान दिया जाता है, जैसी पूजा भक्ति होती है, जितने जिनमंदिर और स्वाध्याय भवन बने हैं, जितने शास्त्र छपे हैं और घर-घर पहुँचे हैं; उनकी तुलना में अन्यत्र जो कुछ भी हुआ है, वह नगण्य ही है, न के बराबर ही है। इस पर कुछ लोग कहते हैं कि भले ही भगवान कुछ लेते-देते न हों, पर उनकी पूजा - भक्ति से जो पुण्यबंध होता है; उसके फल में अनुकूलता तो मिलती ही है। हाँ, यह बात सत्य है कि भगवान की पूजा भक्ति से पुण्य का बंध होता है और उसके फल में लौकिक अनुकूलता भी प्राप्त होती है; पर कुछ माँगने से, वह पुण्य बढ़ता नहीं, अपितु कुछ कम हो जाता है, क्षीण हो जाता है; सातिशय पुण्य का बंध तो जैनदर्शन में ज्ञानी जीवों को निष्कामभाव से होनेवाली भक्ति से ही होता है। पण्डितजी कहते हैं कि कुदेवादिक के सेवन से जीव का बिगाड़ दो प्रकार से होता है। एक तो मिथ्यात्वादि दृढ़ होने से मोक्षमार्ग दुर्लभ हो जाता है और दूसरे पाप का बंध होने से लौकिक प्रतिकूलतायें भी बनी
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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