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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार यदि हम इस परम सत्य से परिचित हैं तो फिर हमें किसी भी प्रकार के भय, स्नेह, आशा और लोभ से किसी रागी -द्वेषी देवी-देवता की आराधना करने की आवश्यकता नहीं है ह्न इस सम्पूर्ण प्रकरण का यही संदेश है। यहाँ पर प्रश्न किया जा सकता है कि जब कोई किसी का कुछ कर ही नहीं सकता; यहाँ तक कि अरहंत भगवान भी किसी का भला-बुरा नहीं करते । यदि यही बात परमसत्य है तो फिर हम उनकी भक्ति क्यों करें? अरे, भाई ! भक्ति तो पंचपरमेष्ठी के गुणों में होनेवाले अनुराग को कहते हैं। कहा भी है ह्न ‘गुणेषु अनुरागः भक्ति: ह्र गुणों में होनेवाले अनुराग को भक्ति कहते हैं।' १४० यदि किसी व्यक्ति में हम से अधिक गुण हैं तो उस व्यक्ति के प्रति हमारे हृदय में सहज ही अनुराग उत्पन्न होता। उक्त अनुराग को ही लोक भक्ति कहते हैं । यदि वही अनुराग पंचपरमेष्ठी के गुणों के आधार पर उनमें हो तो, उसे जिनधर्म में भक्ति कहा जाता है। सच्ची भक्ति मात्र गुणों के आधार पर होती है; उसमें किसी भी प्रकार का स्वार्थ नहीं होता, नहीं होना चाहिए। एक व्यक्ति क्रिकेट खेलना सीखना चाहता है। इसके लिए उसने एक कोच भी लगाया है, जो उसे प्रतिदिन जेठ की दोपहरी में घंटों अभ्यास कराता है, उसके साथ दौड़ता है, भागता है; पसीने से लथपथ हो जाता है; पर उसने अपने घर में जो चित्र लगाये हैं, उनमें उसका चित्र नहीं है; उसमें तो कपिलदेव का चित्र है, सचिन तेन्दुलकर का चित्र है। यद्यपि वह अपने कोच की भी विनय रखता है, उनका सम्मान करता है; उन्हें उचित पारिश्रमिक भी देता है; तथापि यह सब उनके द्वारा किये सहयोग के कारण होता है; अतः विनय तो है, पर भक्ति नहीं । यद्यपि यह परम सत्य है कि उक्त संदर्भ में उसे कपिलदेव या सचिन तेन्दुलकर से कोई सहयोग प्राप्त नहीं है, वे लोग उसके पत्र का भी उत्तर नौवाँ प्रवचन १४१ नहीं देते, मिलने का तो सवाल पैदा ही नहीं होता, उनके पास जाने की कोशिश भी करे तो भी पुलिस के डंडे खाने पड़ते हैं, फिर भी घर में चित्र उनके ही लगाये हैं; क्योंकि यह उन जैसा क्रिकेटर बनना चाहता है, अपने कोच जैसा नहीं, जिसका नंबर जिले की टीम में भी नहीं आ पाया। वे लोग उसके आदर्श हैं, वह उन जैसा बनना चाहता है; अतः उनके प्रति उसके हृदय में सहज ही भक्तिभाव उमड़ता है। जब वे जीतते हैं, तेजी से रन बनाते हैं तो यह उछल पड़ता है; जब वे हारते हैं तो यह उदास हो जाता है। यह सब एकदम निस्वार्थभाव से होता है। इसीप्रकार जो हमें वस्तुस्वरूप समझाते हैं, पढ़ाते हैं, सिखाते हैं, हमारा सभी प्रकार से पूरा सहयोग करते हैं; हम उन गृहस्थ ज्ञानियों का भी आदर करते हैं, विनय रखते हैं; रखना भी चाहिए; तथापि हमारे आदर्श तो अरहंत-सिद्ध भगवान ही हैं; पंचपरमेष्ठी ही हैं; हम उन जैसा ही बनना चाहते हैं; इसलिए उनके प्रति हमारे हृदय में सहज ही भक्तिभाव उमड़ता है, उमड़ना भी चाहिए; यही कारण है कि हम उनके मंदिर बनवाते हैं, उनकी प्रतिमायें विराजमान करते हैं, उनकी पूजा-अर्चना करते हैं; वह सबकुछ करते हैं, जो एक सच्चे भक्त को करना चाहिए । उनसे हमें कुछ मिलेगा ह्न इस भावना से की गई भक्ति तो व्यापार है, धंधा है; उसमें तो स्वार्थ की दुर्गंध आती है। उनसे कुछ मांगना तो भिखारीपन है । जिनेन्द्र भगवान के भक्त भिरवारी नहीं होते। यद्यपि यह सत्य है कि हमें जो कुछ भी मिलता है, अनुकूलप्रतिकूल संयोग मिलते हैं; वे सब हमारे पुण्य-पापानुसार अपनी पर्यायगत योग्यता से ही प्राप्त होते हैं; तथापि हम जो भगवान से माँगते हैं, वह भी तो हमारे पुण्य-पापानुसार ही मिलेगा। अतः हम यही तो कहते हैं कि यदि हमारे कोई पुण्य शेष हों तो उसके फल में हमें अमुक संयोग प्राप्त हों ह्न इसमें तो कोई बुरी बात नहीं होना चाहिए। फिर आप हमें ऐसा करने से क्यों रोकते हैं? अरे, भाई ! आप यह भी तो सोचिये कि यदि बुरी बात नहीं होती तो
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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