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________________ ६८ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार अथवा उनकी अवस्था पलटने से या शरीर के स्कन्ध के खण्ड आदि होने से स्थूल- कृशादिक, बाल-वृद्धादिक अथवा अंगहीनादिक होते हैं और उनके अनुसार अपने प्रदेशों का संकोच - विस्तार होता है; यह सबको एक मानकर मैं स्थूल हूँ, मैं कृश हूँ, मैं बालक हूँ, मैं वृद्ध हूँ, मेरे इन अंगों का भंग हुआ है ह्र इत्यादिरूप मानता है। तथा शरीर की अपेक्षा गति कुलादिक होते हैं, उन्हें अपना मानकर मैं मनुष्य हूँ, मैं तिर्यंच हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ ह्र इत्यादिरूप मानता है। तथा शरीर का संयोग होने और छूटने की अपेक्षा जन्म-मरण होता है; उसे अपना जन्म-मरण मानकर मैं उत्पन्न हुआ, मैं मरूँगा ह्र ऐसा मानता है। " अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि की चर्चा समयसार में भी आई है; किन्तु महापण्डित टोडरमलजी ने इनके अतिरिक्त भी एक भ्रमबुद्धि की चर्चा की है; जो अन्यत्र देखने में नहीं आती। यह उनका मौलिक चिन्तन है। यह अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव शरीर के संदर्भ कभी तो यह कहता है कि 'मैं गोरा हूँ, कृष हूँ और कभी कहता है कि मेरा शरीर गोरा है, कृष है ह्न इसप्रकार शरीर में कभी अहंबुद्धि करता है और कभी ममत्वबुद्धि करता है; भ्रम में पड़ा है; अतः निर्णय नहीं कर पाता कि शरीर मैं हूँ या शरीर मेरा है। यह उसकी भ्रमबुद्धि है। जिनको अत्यन्त अल्पज्ञान है ह्र ऐसे एकेन्द्रियादि जीव भी इस गृह मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं और देहपिण्ड में अहंबुद्धि धारण किये रहते हैं । ܕ इस बात को स्पष्ट करते हुए पण्डितजी लिखते हैं कि ह्र “इन्द्रियादिक के नाम तो यहाँ कहे हैं, परन्तु इसे तो कुछ गम्य नहीं है। अचेत हुआ पर्याय में अहंबुद्धि धारण करता है। उसका कारण क्या है ? वह बतलाते हैं ह्न इस आत्मा को अनादि से इन्द्रियज्ञान है; उससे स्वयं अमूर्तिक है, वह तो भासित नहीं होता; परन्तु शरीर मूर्तिक है, वही भासित होता है। और आतमा किसी को आपरूप १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ- ८१ पाँचवाँ प्रवचन ६९ जानकर अहंबुद्धि धारण करे ही करे, सो जब स्वयं पृथक् भासित नहीं हुआ, तब उनके समुदायरूप पर्याय में ही अहंबुद्धि धारण करता है। " आत्मा में एक श्रद्धा नाम का गुण है, जिसका काम ही यह है कि वह किसी न किसी में अहंबुद्धि धारण करे ही करे, किसी न किसी में अपनापन स्थापित करे ही करे और इस आत्मा में एक ज्ञानगुण है, जिसका काम स्व-पर को जानना है। जगत में ऐसा कोई पदार्थ नहीं हैं कि जिसे जानने का सामर्थ्य इस जीव में न हो। ध्यान रहे यह श्रद्धा गुण ज्ञान गुण का अनुसरण करता है। अतः ज्ञान में जो जानने में आता है, अथवा ज्ञान जिसे निजरूप से जानता है; श्रद्धा गुण उसी में अपनापन स्थापित कर लेता है, उसी में अहंबुद्धि धारण कर लेता है। अनादि से इस आत्मा को जो भी जानने में आता रहा है, वह सब इन्द्रियों के माध्यम से ही आता रहा है और इन्द्रियाँ मात्र रूप, रस, गंध और स्पर्शवाले पुद्गल को जानने में ही निमित्त होती हैं। इस जीव के अत्यन्त नजदीक पौद्गलिक पदार्थ यह शरीर ही है; अतः सदा वही जानने में आता रहता है; यही कारण है कि वह इसमें अपनापन स्थापित कर लेता है। एक गाय ने अभी-अभी एक बछडे को जन्म दिया। वह बहुत भूखा है; अतः उसे भोजन की तलाश है। यद्यपि वह जानता है कि उसके खाने की समुचित व्यवस्था यहीं-कहीं आसपास ही है तथा वह यह भी जानता है कि उसका भोजन उसकी माँ के स्तनों में है, पर वह अपनी माँ को पहिचानता नहीं है। यद्यपि उसे गाय, माँ, स्तन आदि शब्दों का ज्ञान नहीं है; तथापि तत्संबंधी भाव का भासन अवश्य है। जहाँ उसका जन्म हुआ है; वहाँ उसकी माँ के साथ, उसी जाति की अनेक गायें खड़ी हैं। अत: वह किसी भी गाय के पास जाता है, पर कोई १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ८१
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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