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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार इतनी बात तो हमारे मति-श्रुतज्ञान में आ जाती है; पर प्रत्येक द्रव्य और उनके गुणों की किस समय कौन-सी पर्याय होगी तू यह तो केवलज्ञानी ही जानते हैं, जान सकते हैं। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए तो उक्त वस्तुव्यवस्था का आगमानुसार सामान्य ज्ञान ही पर्याप्त है। वह भी, हो तो ठीक, न हो तो भी कोई बात नहीं; पर आत्मा के कल्याण के लिए प्रयोजनभूत तत्त्वों की सामान्य जानकारी अत्यन्त आवश्यक है। ___ 'अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव इन तत्त्वार्थों के संबंध में क्या जानते हैं, वे इन्हें कैसा मानते हैं और उनकी प्रवृत्ति कैसी होती है' ह्न पण्डितजी यहाँ इस बात को विस्तार से समझाते हैं। यह अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव, एक अपना आत्मा और अनंत पुद्गल परमाणु के पिण्डरूप शरीर ह्र इन सबकी मिली हुई इस मनुष्य पर्याय में अहंबुद्धि (एकत्वबुद्धि) और ममत्वबुद्धि (स्वामित्वबुद्धि) धारण करता है, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धि धारण करता है अर्थात् यह मानता है कि बस यही मैं हूँ, मैं ही इस मनुष्य पर्याय का स्वामी हूँ और मैं ही इसका कर्ता-भोक्ता हूँ। इसकी ऐसी मान्यता ही जीव और अजीवतत्त्व संबंधी अयथार्थ श्रद्धान है, जीव-अजीव तत्त्व संबंधी भूल है। किसी वस्तु के बारे में ऐसा मानना कि 'यह मैं ही हूँ हू अहंबुद्धि है, एकत्वबुद्धि है; यह मानना कि 'यह मेरी है'ह ममत्वबुद्धि है, स्वामित्वबुद्धि है। ऐसा मानना कि 'मैं इसका कर्ता हूँ ह कर्तृत्वबुद्धि है और ऐसा मानना कि 'मैं इसका भोक्ता हूँ ह्न भोक्तृत्वबुद्धि है। यह मनुष्यपर्याय एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी है, जिसके अनंत शेयर हैं। उनमें इस जीव का मात्र एक शेयर है; फिर भी यह स्वयं को कम्पनी का मालिक समझता है; कर्ता-धर्ता समझता है। यह तो ऐसा ही हुआ कि किसी लाखों शेयर वाली कम्पनी का एक शेयर खरीद कर कोई स्वयं को उसका मालिक समझने लगे, उसका कर्ता-धर्ता समझने लगे तो क्या वह उसका मालिक हो जायेगा, उस पाँचवाँ प्रवचन कंपनी का कर्ता-धर्ता हो जायेगा । यदि नहीं तो फिर मैं देह और जीव के पिण्डरूप शरीर का स्वामी या कर्त्ता-धर्ता कैसे हो सकता हूँ? जिसप्रकार उस कंपनी में एक शेयरवाले की कुछ भी नहीं चलती; उसीप्रकार इस मनुष्यदेह पर हमारी भी कुछ नहीं चलती। इस देह को जब जैसा परिणमना होता है, तब वैसा परिणमती है, इसमें हमारा किया कुछ भी नहीं होता। इसके एक बाल पर भी तो हमारी कुछ नहीं चलती। उस बाल को जबतक काला रहना होता है, तबतक काला रहता है और जब सफेद होना होता है, सफेद हो जाता है। जबतक रहना होता है, तबतक हमारे सिर पर सवार रहता है और जब जाना होता है, बिना अनुमति के ही चला जाता है। इसमें हमारी मर्जी से कुछ भी नहीं होता; फिर भी यह अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव इसमें एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व धारण करता है। इसकी इसी मान्यता का नाम ही अगृहीत मिथ्यादर्शन है, ऐसा ही जानने का नाम अगृहीत मिथ्याज्ञान और इसकी यह वृत्ति और प्रवृत्ति ही मिथ्याचारित्र है। ___ यह अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव शरीर की अपेक्षा ही अन्य वस्तुओं में अपनापन करता है, उनका स्वामी और कर्ता-भोक्ता बनता है। जिनसे यह शरीर उत्पन्न हुआ, उन्हें माता-पिता मानता है; इसके शरीर से जो उत्पन्न हुए हों, उन्हें पुत्र-पुत्री मानता है; जो इस शरीर को रमण कराये, उसे रमणी (पत्नी) मानता है। इस शरीर के उपकारी को मित्र और अपकारी को शत्रु मानता है। अधिक क्या कहें जितने भी संबंध स्वीकार करता है, वे सब इस शरीर के आधार पर ही स्वीकार करता है। इसप्रकार इस शरीर और अपने को एक मानता है। इसकी यह मान्यता ही इसकी जीव-अजीव तत्त्व संबंधी भूल है। उक्त संदर्भ में पण्डितजी ने बहुत विस्तार से चर्चा की, जो मूलतः पठनीय है। नमूने के रूप में उसका कुछ अंश प्रस्तुत है ह्र "तथा शरीर के परमाणुओं का मिलना-बिछुड़ना आदि होने से
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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