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________________ अधर्मद्रव्य-विवेचन जिनधर्म-विवेचन ५. धर्मद्रव्य के सम्बन्ध में जो अज्ञान था, उसका नाश होता है और यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है। ६. अज्ञानियों के कर्ताप्रधान कथन की सहजरूप से उपेक्षा हो जाती है। ७६. प्रश्न - धर्मद्रव्य को स्वीकार न करने से क्या हानि होती है? उत्तर - धर्मद्रव्य को स्वीकार न करने से जीव-पुद्गल के गमन कराने के विकल्प से तथा तत्सम्बन्धी अज्ञान के कारण अज्ञानी जीव स्वयं धर्मद्रव्यरूप बनने का मिथ्या अभिमान करता है, जिससे वह दुःखी होता अधर्मद्रव्य का सामान्य स्वरूप ७७. प्रश्न - अधर्मद्रव्य किसे कहते हैं? उत्तर - स्वयं गतिपूर्वक स्थितिरूप परिणमन करनेवाले जीवों और पुद्गलों को ठहरने में जो निमित्त हो, उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं। जैसे - चलते हुए पथिक को रुकने में वृक्ष की छाया निमित्त होती है। धर्मद्रव्य के समान अधर्मद्रव्य के सम्बन्ध में भी आगम में अनेक सन्दर्भ हैं - १. भगवती आराधना, श्लोक २१३९ में कहा है - "अधर्मद्रव्य के निमित्त से सिद्ध भगवान लोक-शिखर पर अनन्तकाल तक निश्चल ठहरते हैं।" २. आचार्य कुन्दकुन्द, पंचास्तिकाय ग्रन्थ की गाथा ८६ में कहते हैं - "जिसप्रकार धर्मद्रव्य है, उसीप्रकार अधर्म नाम का द्रव्य भी जानो; परन्तु वह (गतिक्रियापूर्वक) स्थितिक्रियायुक्त को पृथ्वी की भाँति कारणभूत है अर्थात् स्थितिक्रियापरिणत जीव-पुद्गलों को निमित्तभूत है।" ३. श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ने द्रव्यसंग्रह की गाथा १८ में कहा है - "स्थिर हुए पुद्गल और जीवद्रव्यों को स्थिर रहने में सहकारी अधर्मद्रव्य है। जैसे - मुसाफिरों को छाया, किन्तु वह अधर्मद्रव्य चलते हुए जीव और पुद्गल, द्रव्यों को कदापि रोक नहीं सकता।" ७८. प्रश्न - अधर्मद्रव्य को जानने से हमें क्या लाभ है? उत्तर - जैसे - गिरते हुए पेड़ को मैंने स्थिर रखा, गड्ढे में गिरते हुए आदमी को मैंने गिरने से बचाया, इत्यादि प्रकार के अज्ञान का अभाव हो जाता है; क्योंकि स्थिर होनेवाले पदार्थ अपने कारण से स्थिर होते हैं, उनके स्थिर होने में अधर्मद्रव्य प्रधान निमित्त है, स्थिर करने की चेष्टा करनेवाले आदमी का राग, चेष्टा आदि भी अनेक अन्य निमित्तों में एक निमित्त है - ऐसा यथार्थ ज्ञान होता है। यहाँ धर्मद्रव्य के लाभ के समान तर्क के आधार से अधर्मद्रव्य के भी अनेक लाभ को जान लेना चाहिए। ७९. प्रश्न - अधर्मद्रव्य की परिभाषा में से 'स्वयं गतिपूर्वक स्थितिरूप परिणमन करनेवाले' वाक्यांश को निकाल दिया जाए तो क्या आपत्ति है? उत्तर - स्वयं गतिपूर्वक स्थितिरूप परिणमन करनेवाले जीवों और पुद्गलों को ही अधर्मद्रव्य स्थिति में निमित्त है - ऐसी विशेष मर्यादा न रहने से सदैव स्थिर रहनेवाले धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य एवं कालद्रव्य को भी स्थिति में अधर्मद्रव्य का निमित्तपना मानने का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा, जो तर्क, युक्ति और आगम को सम्मत नहीं है। ८०. प्रश्न - अधर्मद्रव्य को न जानने से क्या हानि होती है? उत्तर - अधर्मद्रव्य को न जानने के कारण अज्ञानी जीव, स्वयं गतिपूर्वक स्थितिरूप परिणमन करनेवाले जीव-पुद्गलों को ठहराने में निमित्त होने का विकल्प करता हुआ मिथ्याभिमान करता है तथा अपने को स्वयं अधर्मद्रव्य जैसा ही मान लेता है अर्थात् मिथ्यात्व की पुष्टि करता है और अपनी ही मिथ्या मान्यता से दुःखी रहता है। ८१. प्रश्न - धर्म-अधर्मद्रव्य की परिभाषा में मात्र जीव और पुद्गल - इन दो द्रव्यों को ही क्यों लिया है? उत्तर - जीवादि छह द्रव्यों में मात्र जीव और पुद्गल ही गमनरूप और गमनपूर्वक स्थितिरूप परिणमन करते हैं; अतः इन दो द्रव्यों को ही लिया है।
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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