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________________ जिनधर्म-विवेचन हानि - वृद्धि होती रहती है। विशेष अनुपातवाले गुणों को प्राप्त होने पर वे परस्पर में बँध जाते हैं, जिसके कारण सूक्ष्मतम से स्थूलतम तक अनेक प्रकार के स्कन्ध उत्पन्न हो जाते हैं। ८४ पृथ्वी, जल, प्रकाश, छाया आदि सभी पुद्गल स्कन्ध हैं। लोक के सर्व द्वीप, चन्द्र, सूर्य, स्वर्ग-नरक, तीनलोक की अकृत्रिम रचनाएँ आदि सभी महान पुद्गल स्कन्ध, एक महास्कन्ध के अन्तर्गत हैं; क्योंकि पृथक्पृथक् रहते हुए भी ये सभी मध्यवर्ती सूक्ष्म स्कन्ध के द्वारा परस्पर में बँधकर एक हैं। स्कन्ध के छह भेद (उदाहरण के साथ) निम्न प्रकार हैंभूमि, पर्वत, काष्ट, पाषाण आदि । तेल, दूध, जल आदि । १. स्थूल-स्थूल स्कन्ध २. स्थूल स्कन्ध घी, ३. स्थूल सूक्ष्म स्कन्ध छाया, आतप चाँदनी, अन्धकार आदि । ४. सूक्ष्म-स्थूल स्कन्ध- आँख से न दिखनेवाले और चार इन्द्रियों से जानने में आने योग्य स्पर्श, रस, गन्ध, शब्द । ५. सूक्ष्म स्कन्ध - इन्द्रियज्ञान के अगोचर कार्मणवर्गणारूप स्कन्ध । ६. सूक्ष्म-सूक्ष्म स्कन्ध - कार्मणवर्गणा से भी सूक्ष्म- द्व्यणुक आदि छोटे-छोटे स्कन्ध । धर्मद्रव्य का सामान्य स्वरूप ७२. प्रश्न - धर्मद्रव्य किसे कहते हैं? उत्तर - स्वयं गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों को गमन करने में जो निमित्त हो, उसे धर्मद्रव्य कहते हैं। जैसे- गमन करती हुई मछली को गमन करने में पानी निमित्त होता है। ७३. प्रश्न - धर्मद्रव्य के उपर्युक्त कथन के लिए कुछ शास्त्र का आधार भी है क्या ? उत्तर - क्यों नहीं, अनेक शास्त्रों का समाधानकारक आधार है। (43) धर्मद्रव्यद्रव्य - विवेचन ८५ जैसे - सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ के पाँचवें अध्याय के सूत्र १७ की टीका में आचार्य पूज्यपाद कहते हैं - ७४. प्रश्न - १. धर्म और अधर्म दोनों द्रव्य तुल्य बलवान हैं, अतः गति से स्थिति का एवं स्थिति से गति का प्रतिबन्ध होना चाहिए । उत्तर - नहीं; क्योंकि ये (धर्म-अधर्मद्रव्य) दोनों अप्रेरक हैं। २. जिसप्रकार जगत् में पानी मछलियों को गमन में अनुग्रह करता है, उसीप्रकार धर्मद्रव्य, जीव- पुद्गलों को गमन में अनुग्रह करता है। (निमित्तभूत होता है) - ऐसा जानना चाहिए। ७५. प्रश्न धर्मद्रव्य को जानने से क्या लाभ है? उत्तर - १. अनेक स्थानों से मैंने अनेक पदार्थों को मँगवाया है, इसमें मैं मँगवा सकता हूँ' - ऐसा समझना असत्य है, यह निश्चित होता है; क्योंकि किसी भी द्रव्य का गमन / स्थानान्तर, उस द्रव्य की क्रियावती शक्ति (स्थानान्तर करनेरूप शक्ति) से होता है और उसमें धर्मद्रव्य ही निमित्त है। मैं तो वास्तव में निमित्त भी नहीं हूँ ऐसा पता चलता है। २. मैं अपने हाथ-पैरों को चला सकता हूँ- यह भाव भ्रमरूप सिद्ध होता है। लकवा लगने पर तो सबको ऐसा पक्का निर्णय होता ही है। हाथ-पैरों में हलन चलन करने की अपनी स्वयं की शक्ति रहती है। चलने में धर्मद्रव्य निमित्त रहता है तथा जीव की इच्छा तो गौण निमित्त है। ३. युवा गेंद को अच्छी तरह उछाल सकता है - यह निमित्त की अपेक्षा सत्य होने पर भी उस गेंद की अपनी क्रियावती शक्ति से यह कार्य हुआ है तथा मुख्य निमित्त, धर्मद्रव्य है और गौण निमित्त, युवा पुरुष है। ४. तेज हवा के ( तूफान के) कारण अनेक पेड़ गिर गये, बिजली के खम्भे ढह गये, फसल नष्ट हो गई, मकान के टीन उड़ गये - यह सब कथन, बाह्य निमित्त-सापेक्ष हैं; वास्तविक मूल कारण तो स्वयं पेड़, खम्भे, फसल और टीन में ही हैं तथा मुख्य निमित्त, धर्मद्रव्य है और तूफान भी एक बाह्य निमित्त है ।
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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