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________________ जिनधर्म-विवेचन भीख माँगने के विषय को लेकर जैन समाज की एक चमत्कारिक तथा अनुकरणीय वृत्ति, जो सहजरूप से समझ में आती है, उसे बताने के लोभ को मैं रोक नहीं पा रहा हूँ; बता ही देता हूँ। तत्त्वप्रचार के निमित्त से समाज के निमन्त्रणानुसार अनेक प्रान्तों (महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि) में मेरा जाना होता है। कभी बड़े-बड़े नगरों में, कभी कस्बों में और कभी-कभी गाँवों में भी जाना होता है। लेकिन मुझे कहीं भी जैन समाज का कोई व्यक्ति, घर-घर जाकर भीख माँगते हुए अपना जीवन बिताते हुए देखने-जानने को नहीं मिला। इसका मुझे आश्चर्य होता है और जैन समाज की यह वीर वृत्ति मुझे अच्छी भी लगती है। दूसरी ओर एक खेदजनक दृश्य स्पष्ट देखने को अवश्य मिलता है, वह यह कि किसी गाँव का मन्दिर हो, सिद्धक्षेत्र हो, महावीरजी या पद्मपुरा अथवा तिजारा जैसे अतिशय क्षेत्र हों तो क्या पूछना? वहाँ भगवान से भीख माँगनेवालों की भीड़ देखते हुए हृदय को महापीड़ा होती है। इस भिखारी वृत्ति को किसी विद्वान् या त्यागी द्वारा प्रोत्साहित करते हुए देखकर तो महान पीड़ा होती है। लगता है जल में ही आग लगी है। ____ महावीरजी क्षेत्र पर सन्तानहीन लोग जाते हैं और पुत्रप्राप्ति की कामना करते हैं - ऐसे समय में विचार आता है कि यह कैसी विडम्बना? जिसने शादी ही नहीं की, उससे पुत्र प्राप्त होने का प्रश्न ही नहीं। उन बालब्रह्मचारी महावीर भगवान से अज्ञानीजन पुत्र-प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, इससे अधिक अज्ञान का और क्या प्रदर्शन हो सकता है? जो सम्पूर्णरूप से अपरिग्रही मुनिराज की अवस्था को प्राप्त करके, पूर्ण वीतरागी जिनेन्द्र बनकर, वर्तमान में सिद्धावस्था में विराजमान होकर अनन्त एवं अव्याबाध सुख का आनन्द ले रहे हैं; उनसे धनादि परिग्रह की भावना रखना भी अज्ञानता की गहन महिमा ही मानना चाहिए। पुण्यपरिणाम से पुण्यकर्म का बन्ध होता है और पुण्यकर्म का उदय आने पर संसार में अनुकूल पदार्थों का संयोग बिना माँगे ही विश्व-विवेचन मिलता है; इतना अति सामान्य ज्ञान तो नामधारी जैन को भी होना ही चाहिए। इस जगत् में मेरा अथवा किसी का भी अच्छा-बुरा करनेवाला कोई भगवान है ही नहीं - ऐसी समझ प्रत्येक जैन को होना ही चाहिए। यदि इतना ज्ञान भी नहीं है तो उसे जैन कुलोत्पन्न भी कैसे माना जाए? लेकिन करें क्या? ___ यदि पूर्वजन्म के विशिष्ट पुण्य का उदय न हो तो किसी-किसी को जैनधर्म का यह अति प्राथमिक ज्ञान भी नहीं रहता; इसलिए जिनधर्म के प्राथमिक संस्कारों की प्राप्ति होना भी अति महत्त्वपूर्ण है - ऐसा समझना चाहिए। अरे! भोगों की भीख में अज्ञानी जीव पंचेन्द्रियों के विषयों को ही चाहता है। लेकिन इन्द्रियों के स्पर्शादि विषय जीव को कभी सुख नहीं दे सकते । सुख तो निराकुलता अर्थात् वीतरागता में ही है - ऐसा श्रद्धान भी जिनवाणी के श्रवण से ही होता है। (७) जिनेन्द्रकथित धर्म की श्रद्धा दृढ़ होती है और धर्माभासों का बहुमान ढह जाता है। रेल से यात्रा करते समय रेल में, रेलवे स्टेशन पर अथवा बस अड्डे पर भी भीख माँगनेवालों की कुछ कमी नहीं होती है। वे भिखारी भी हमें यदा-कदा समझाते रहते हैं - 'धर्म करो भाई!, धर्म करो। आप मुझे एक हाथ से दान/पैसा दोगे तो भगवान आपको सौ हाथों से देगा।' देखो! भिखारी भी यह बताना चाहता है कि मुझे आप मदद करोगे तो धर्म होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि भीख देना धर्म है। ___ कोई बीमार आदमी है, उसके पास औषधोपचार के लिए आवश्यक धनराशि नहीं है। वह धनवान को धन देकर धर्म करने के लिए निवेदन करता है। (25)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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