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________________ ४६ जिनधर्म-विवेचन ___ इस घोर विपत्तिमय संसार में अनेक जीवों ने स्वतः पुण्यरूप कार्य से (द्रव्यलिंगी मुनिराज बनकर) नववें ग्रैवेयकपर्यन्त लौकिक जीवन का तो उद्धार कर लिया; तथापि फिर से भटकते-भटकते पुनः निगोद अवस्था को प्राप्त किया। अरे! निगोदरूप निकृष्ट कार्य के लिए भी कोई दूसरा सहकारी नहीं और सिद्धावस्था के उत्कृष्ट कार्य में भी कोई मददगार नहीं - ऐसा ही जगत का वास्तविक स्वरूप है। (५) सच्ची समझ होते ही भगवान के सम्बन्ध में निरन्तर परेशान करनेवाला व्यर्थ का भय भी नष्ट हो जाता है। पर्यटन के निमित्त से भारत के अनेक प्रदेशों में हमारा अनेक बार जाना होता है, वहाँ हमें जो देखने को मिलता है, उसके कुछ उदाहरण निम्नप्रकार हैं - १. कोई भगवान तो भक्तों को आशीर्वाद देते हुए देखने को मिलते हैं। २. कोई भगवान, शस्त्रों द्वारा दुष्टों को डराते हुए मिलते हैं। ३. कहीं-कहीं भक्त लोग सेवा कर रहे हैं और भगवान सो रहे हैं - ऐसे दर्शन भी होते हैं। ४. अनेक स्थान पर, भक्त भगवान से अत्यन्त भयभीत दिखाई देते हैं। ५. अनेक स्थान पर भक्त रो रहा है और भगवान डाँट रहे हैं - ऐसा दिखाई देता । ६. कहीं-कहीं भक्त क्षमा माँग रहा है और भगवान क्षमा करने के लिए राजी नहीं हैं। तथा अन्त में क्षमा माँगते-माँगते भक्त मर जाता है; लेकिन भगवान उसे क्षमा नहीं करते हैं। ७. हम देखते हैं कि- कोई भगवान अपनी प्रिय पत्नी के साथ रहते हैं। ८. कोई भगवान अपने परिवार एवं भक्तों के साथ भी विराजते हैं। ९. कोई भगवान संकट अवस्था में नजर आते हैं। ___ इसी तरह हमें दुनिया में विविध प्रकार के भगवान देखने को मिलते हैं, लेकिन जिनेन्द्र भगवान का स्वरूप दुनिया से एकदम भिन्नस्वरूप तथा सर्वत्र एकरूप देखने-जानने को मिलता है - विश्व-विवेचन १. जिनेन्द्र भगवान न किसी की ओर देखते हैं, न किसी से बात करते हैं। २. उनके आसपास, जिनको वे अपना मानते हैं - ऐसा न कोई भक्त है तथा जिनको वे अपना शत्रु मानते हैं - ऐसा न कोई बैरी है। ३. जिनेन्द्र भगवान की आँखें, न खुली हैं, न बन्द हैं, उनकी तो नासाग्रदृष्टि है। ४. अन्य वस्तु की तो बात ही छोड़ो, शरीर पर वस्त्र का टुकड़ा भी नहीं है, धागा भी नहीं है। ५. जिनेन्द्र भगवान ने अपने दोनों हाथों को लटका दिया है; क्योंकि उनको हाथों से करने योग्य कोई कार्य ही नहीं रहा है। ६. पद्मासन मुद्रा में वे हाथ पर हाथ रखकर बैठे हुए हैं। मानों हमें समझा रहे हैं - मैं तो किसी का कुछ अच्छा-बुरा करता ही नहीं। वास्तव में जगत् में कोई भी जीव, किसी अन्य द्रव्य का कुछ भी नहीं करता। २२. प्रश्न - इतना विस्तार से कहकर आप हमें बताना क्या चाहते हो? उत्तर - अरे! हमने तो लोकमान्य अनेक प्रकार के भगवान के स्वरूप का मात्र ज्ञान कराया है। २३. प्रश्न - आपके अभिप्राय में और भी कुछ बातें छिपी हुई हैं - ऐसा हमें लगता है। आप अपनी बात स्पष्ट क्यों नहीं करते? उत्तर - इसमें छिपाने जैसी क्या बात है? जो जैसा होना चाहता है, जिसे जिस अवस्था में सुखी होने का विश्वास है, वह उसे ही अपना भगवान मानता है, उसके जैसा होने का प्रयास करता है। अधिक विस्तार की कुछ आवश्यकता ही नहीं है। देखो, जब तक वीतरागी भगवान का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तब तक भगवान से व्यर्थ का भय होता है। लेकिन अब व्यर्थ के भय का कुछ काम नहीं है। भगवान-सम्बन्धी सत्य का ज्ञान होने से निर्भयता प्रगट हो जाती है। अब, आपका भी यथार्थ पुरुषार्थ प्रारम्भ हो जाएगा। (६) भगवान से भोगों की भीख माँगने की भिखारी-वृत्ति का अभाव हो जाता है। (24)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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