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________________ जिनधर्म-विवेचन है कि पुंवेदी से स्त्रीवेदी मनुष्य अथवा तिर्यंचनी, अधिक सुन्दर होती है; लेकिन मोर और मोरनी में यह घटित नहीं होता; क्योंकि इन दोनों का शरीर, कार्य तो है; लेकिन उनका कर्ता कोई व्यक्ति या भगवान नहीं है । इसी उदाहरण के माध्यम से ईश्वर को कर्ता माननेवाले यह सिद्ध करना चाहते हैं कि यह सब, ईश्वर का कार्य है, दृष्टिभेद है। लेकिन अपनी अल्प एवं सामान्य बुद्धि से जो सत्य लगता है, उसे ही सत्य मानना या उसे ही सत्य सिद्ध करने का प्रयास करना, समझदारी का काम नहीं है। भाग्य से जिनधर्म के मूल उपदेशदाता सर्वज्ञ भगवान हैं और शास्त्र में जो कथन हैं, वे सर्वज्ञ भगवान के उपदेशानुसार हैं; इसलिए शास्त्र के उपदेश का उपयोग हमें करना चाहिए। ४० कभी-कभी कोई फल अथवा वनस्पति किसी देवता के समान देखने को मिलती है, इसका अर्थ उसे भगवान ने बनाया है ऐसा विचार करना उचित नहीं है । हमें जो ठीक जँचता है, उसे सत्य मानना यह प्रवृत्ति सर्वत्र गलत तो नहीं है; तथापि इसके पीछे मनन-चिन्तन अवश्य चाहिए तथा समझदार लोगों का विचार भी सुनना एवं समझना चाहिए। अपने विचार को तर्क की कसौटी पर भी कसने का प्रामाणिक प्रयास करना आवश्यक है। २०. प्रश्न - जिनधर्म को छोड़कर दुनिया में और कोई धर्म, ईश्वर को अकर्ता माननेवाला है क्या? अथवा क्या एक जिनधर्म ही है? उत्तर – जिनधर्म को छोड़कर अन्य अनेक धर्म / दर्शन भी भगवान - ईश्वर को कर्ता-धर्ता नहीं मानते। बौद्धधर्म को ईश्वरकर्तावाद मान्य नहीं है। इसीतरह सांख्य मत (वैदिक धर्म का एक भेद) एवं चार्वाक मत भी जगत् का कर्ता-धर्ता किसी ईश्वर को नहीं मानता । आज का भौतिक विज्ञान भी ऐसे किसी ईश्वर की सत्ता से इन्कार करता है। इसप्रकार यह विश्व अनादि-अनन्त होने से इस विश्व के नाश का - (21) विश्व - विवेचन ४१ भय मिट जाता है और इस जगत् का कर्ता-धर्ता ईश्वर है - यह भ्रान्ति भी निकल जाती है। २१. प्रश्न – विश्व को जानने से क्या और भी लाभ होते हैं? उत्तर - हाँ ! हाँ ! विश्व को जानने से और भी अनेक लाभ होते हैं; उनको यहाँ क्रम से देखते हैं - (१) जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं, वे ही सच्चे देव (आप्त ) हैं ऐसा पक्का निर्णय होता है। आचार्य समन्तभद्र ने करीब १८०० वर्ष पूर्व देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा) की रचना में सच्चे देव का स्वरूप स्पष्ट किया है। इस स्तोत्र में ११४ श्लोक हैं । इन सब श्लोकों का अर्थ देना यहाँ सम्भव नहीं है एवं उचित भी नहीं है; इसलिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चार श्लोक अर्थसहित दे रहे हैं; उनमें से स्तोत्र का प्रथम श्लोक - देवागम नभोयान - चामरादि विभूतयः । मायाविष्वपि दृष्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥ अर्थात् हे भगवन्! आप हमारी दृष्टि में मात्र इसलिए महान नहीं हो कि आपके दर्शनार्थ देवगण आते हैं, आपका गमन आकाश में होता है। और आप छत्र-चँवर आदि विभूतियों से विभूषित हो; क्योंकि ये सब विशेषताएँ तो मायावियों में भी देखी जाती हैं । दोषावरणयोर्हानि-र्निः शेषाऽस्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा - स्वहेतुभ्यो, - बहिरन्तर्मलक्षयः ॥ ४ ॥ अर्थात् हे भगवन्! आपकी महानता तो वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण ही है तथा वीतरागता और सर्वज्ञता असम्भव नहीं है। मोह-रागद्वेषादि दोष और ज्ञानावरणादि आवरणों का सम्पूर्ण अभाव सम्भव है; क्योंकि इनकी क्रमशः हानि होती देखी जाती है। जिस प्रकार लोक में अशुद्ध कनक - पाषाणादि में स्वहेतुओं से अर्थात् अग्नि- तापादि से अन्तर्बाह्य मल का अभाव होकर स्वर्ण की शुद्धता देखी जाती है, उसी प्रकार
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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