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________________ जिनधर्म-विवेचन अब, यह विचार करते हैं कि जीव और पुद्गलों को एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक जाने में निमित्त कौनसा द्रव्य होता है? गमन-कार्य के 'जीव' और 'पुद्गल' ये दोनों तो उपादान हैं, लेकिन उपादान स्वयं निमित्त नहीं होता। निमित्त तो उपादान से भिन्न होता है, इसलिए जीव या पुद्गल - ये स्वयं क्षेत्रान्तर के निमित्त नहीं हो सकते। कालद्रव्य तो परिणमन में निमित्त है अर्थात् पर्याय बदलने में निमित्त है, किन्तु कालद्रव्य क्षेत्रान्तर का निमित्त नहीं है, इसी प्रकार आकाशद्रव्य, समस्त द्रव्यों को रहने के लिए स्थान देता है। जब ये पहले क्षेत्र में थे, तब भी जीव और पुद्गलों को आकाश निमित्त था और दूसरे क्षेत्र में भी वही निमित्त है, इसलिए आकाश को भी क्षेत्रान्तर का निमित्त नहीं कह सकते । इसप्रकार यह निश्चित होता है कि जो क्षेत्रान्तररूप कार्य हुआ, उसका निमित्त, इन चार द्रव्यों के अतिरिक्त कोई अन्य द्रव्य है। गति करने में कोई एक द्रव्य निमित्तरूप है, किन्तु वह कौनसा द्रव्य है - इसका जीव ने कभी विचार नहीं किया, इसलिए उसकी खबर नहीं है; अतः क्षेत्रान्तर होने में निमित्तरूप द्रव्य को 'धर्मद्रव्य' कहा जाता है - यह द्रव्य भी अरूपी और ज्ञानरहित है। अधर्मद्रव्य : जिसतरह गति करने में धर्मद्रव्य निमित्त है, उसी तरह स्थिति में उससे विरुद्ध अधर्मद्रव्य निमित्तरूप है। जैसे, 'वह एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में आकर स्थिर होता है' यहाँ स्थिर होने में निमित्त कौन है? आकाश स्थिर रहने में निमित्त नहीं है; क्योंकि आकाश का निमित्तपना तो रहने के लिए है, गति के समय भी रहने में आकाश निमित्त था, इसीलिए स्थिति का निमित्त कोई अन्य द्रव्य होना चाहिए, वह द्रव्य 'अधर्मद्रव्य' है - यह द्रव्य भी अरूपी और ज्ञानरहित है। उपसंहार - इसप्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - इन छह द्रव्यों की सिद्धि हुई। इन छह के अतिरिक्त सातवाँ कोई द्रव्य भी है नहीं और इन छह में से एक भी न्यून नहीं है, बराबर छह ही द्रव्य हैं और ऐसा मानने से ही यथार्थ वस्तु की सिद्धि होती है। विश्व-विवेचन यदि इन छह के अतिरिक्त सातवाँ कोई द्रव्य हो तो यह बताओ कि उसका क्या कार्य है? ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो इन छह से बाहर हो, इसलिए सातवाँ द्रव्य नहीं है। यदि इन छह द्रव्यों में से एक भी कम हो तो यह बताओ कि उसका कार्य कौन करेगा? छह द्रव्यों में से एक भी द्रव्य ऐसा नहीं कि जिसके बिना विश्व का नियम चल सके। १५. प्रश्न - क्या इस विश्व में मात्र छह ही द्रव्य हैं? उत्तर - आपने परिभाषा में प्रयुक्त 'जाति की अपेक्षा' - इस वाक्यांश की ओर ध्यान नहीं दिया; इसलिए आपको यह प्रश्न उपस्थित हुआ है; क्योंकि संख्या की अपेक्षा तो कुल मिलाकर द्रव्यों की संख्या अनन्तानन्त है। १६. प्रश्न - कुल मिलाकर द्रव्य अनन्तान्त हैं - ऐसा आपने कहा। यहाँ हमारा पूँछना यह है कि क्या इसके लिए कुछ शास्त्राधार भी हैं। मात्र आपके लिखने से हमारी श्रद्धा नहीं होती। आप विषय स्पष्ट करें? उत्तर ह्न आपका पूँछना गलत नहीं है। अनन्त जिनेन्द्र (सर्वज्ञ) भगवन्तों के उपदेशानुसार आचार्यों ने शास्त्र लिखे हैं; उनमें से अत्यन्त प्राचीन आचार्य श्री कार्तिकेयस्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा नामक शास्त्र की गाथा २२४ में लिखा है - संतिअणंताणंता तीसु वि कालेसु सव्व दव्वाणि। अर्थात् सब द्रव्य, तीनों ही कालों में अनन्तानन्त हैं। जाति की अपेक्षा विभाजन किया जाए तो वे सब द्रव्य मात्र छह प्रकार के हैं। प्रत्येक द्रव्य को संख्या की अपेक्षा जानना चाहें तो प्रत्येक द्रव्य की संख्या अलग-अलग है । जैसे, जीवद्रव्य अनन्त हैं। पुद्गलद्रव्य अनन्तान्त हैं। धर्मद्रव्य मात्र एक ही है। अधर्मद्रव्य भी एक ही है। आकाशद्रव्य भी मात्र एक ही है; लेकिन कालद्रव्य लोकप्रमाण असंख्यात हैं। १. श्रीरामजीभाई कृत मोक्षशास्त्र टीका, अध्याय ५, उपसंहार, पृष्ठ ३७८ से ३८९ के (16) आधार पर।
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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