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________________ २०४ जिनधर्म-विवेचन २५८. प्रश्न- ध्रौव्य किसे कहते हैं? उतर - • प्रत्यभिज्ञान की कारणभूत द्रव्य की किसी अवस्था की नित्यता को धौव्य कहते हैं अर्थात् उत्पाद - व्ययरूप दोनों पर्यायों में द्रव्य निरन्तर विद्यमान रहनेवाले नित्य अंश को ध्रौव्य कहते हैं। तो अनादि-अनन्त, अविनाशी तथा निरंश होता है; सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में भी आचार्य पूज्यपाद ने कहा है- “जो अनादि पारिणामिक स्वभाव के कारण व्यय तथा उत्पाद के अभाव से ध्रुव रहता है, स्थिर रहता है; वही धौव्य है।” २५९. प्रश्न- आप ध्रौव्य की परिभाषा में अवस्था की नित्यता एवं नित्य- अंश को ध्रौव्य कह रहे हो, इस ध्रौव्य का वास्तविक स्वरूप क्या है? उतर - देखो! आत्मा को भी ध्रुव कहा जाता है, वह द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से सत्य है, परन्तु यहाँ पर्यायरूप ध्रौव्य की बात चल रही है। हमने पंचाध्यायी का उद्धरण देकर उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य ये तीनों पर्यायों के होते हैं - यह विषय प्रारम्भ में ही बता दिया है। यहाँ उत्पाद और व्यय एक समयवर्ती हैं और उन एक समयवर्ती उत्पाद - व्यय में अर्थात् दोनों में अवस्थायी नित्यता के अंश को धौव्य कहा है। विवक्षा भेद से सब विषय स्पष्ट समझ में आ जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि धौव्य अनादि-अनन्त तो है ही; तथापि पर्याय की अपेक्षा से देखा जाए तो उत्पाद व्यय में रहनेवाले नित्य अंश को भी धौव्य कहते हैं। २६०. प्रश्न प्रत्यभिज्ञान किसे कहते हैं? उतर - जोड़रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। प्रत्यक्ष और स्मृति ज्ञान के विषयभूत पदार्थों में होनेवाले जोड़रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। जैसे - यह वही मनुष्य है, जिसे मैंने कल देखा था । यह जो उदाहरण दिया गया है, वह अत्यन्त स्थूल है। वास्तव में देखा जाए तो प्रतिसमय द्रव्य में नवीन पर्याय का उत्पाद होता है और पूर्व (103) पर्याय-विवेचन २०५ पर्याय का नाश / व्यय होता है तथा उत्पाद-व्यय की अवस्था में निरन्तर विद्यमान नित्य अंश नियम से रहता ही है; इस नित्य अंश को ही धौव्य कहते हैं। जिस समय क्षमाधर्मरूप नवीन पर्याय का उत्पाद होता है, उसी समय क्रोधरूप की अवस्था का व्यय होता है तथा दोनों अवस्थाओं में निरन्तर विद्यमान जीवद्रव्य अथवा चारित्रगुण ध्रौव्यरूप से रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य की पर्यायों में घटित करना चाहिए । उतर - २६१. प्रश्न - धर्मादिद्रव्य में उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य कैसे घटते हैं? • जैस, चलती हुई गाय को गति में निमित्तरूप धर्मद्रव्य की नवीन पर्याय का उत्पाद, उसके पूर्व समय में चलने वाली उसी गाय को निमित्तरूप धर्मद्रव्य की पूर्व पर्याय का व्यय होता है। दोनों अवस्थाओं वाली गाय की गति में निमित्तरूप होते समय धर्मद्रव्य निरन्तर बना रहता है। यही तो धर्मद्रव्य का ध्रौव्यरूप से सतत बना रहना है। २६२. प्रश्न - उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य को जानने से हमें क्या लाभ होते हैं? उतर - किसी भी द्रव्य में होनेवाली नवीन पर्याय के कर्ता हम नहीं हैं, उस द्रव्य की 'द्रव्यगत उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यशक्ति' से ही नवीन पर्याय उत्पन्न होती हैं; इसका ज्ञान होते ही - १. प्रत्येक पर्याय की स्वतन्त्रता का बोध होता है। २. परद्रव्य की पर्याय के कर्तापने का मिथ्या अभिप्राय नष्ट हो जाता है। ३. जीव को शान्ति और समाधान की प्राप्ति होती है। ४. मोक्षमार्ग व्यक्त करनेरूप पुरुषार्थ के प्रति जीव स्वतः सन्मुख होता है। पर के प्रति उदासीन हुए बिना निजात्मा के प्रति पुरुषार्थ जागृत नहीं होता; अतः स्वतन्त्र वस्तु-व्यवस्था का ज्ञान करना आवश्यक है। इसीप्रकार अधर्म, आकाश एवं काल द्रव्य में भी घटित करना चाहिए । इसप्रकार 'पर्याय-विवेचन' का ४१ प्रश्नोत्तर के साथ विवेचन पूर्ण होता है।
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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