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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला नहीं होती, अर्थात् दूसरे का कुछ करे, दूसरे से उत्पन्न हो - बदले ऐसा नहीं होता । 41 (4) भाव अर्थात् गुण; जितने जिसरूप हैं, उतने उसीरूप सत् रहते हैं; बिखरकर अलग-अलग नहीं होते । प्रश्न 59 - जीवद्रव्य की उपरोक्तानुसार मर्यादा समझने से क्या लाभ है ? उत्तर - (1) छहों द्रव्य और उनके गुण तथा पर्यायों की स्वतन्त्रता जानने पर अपना हित-अहित (भला-बुरा) अपने से अपने में ही होता है - ऐसा यथार्थ ज्ञान होता है; (2) कोई भी द्रव्यकर्म अथवा किसी पर के द्रव्य-क्षेत्र -काल-भाव इस जीव को लाभ-हानि नहीं कर सकते ऐसा निर्णय होता है; - (3) स्वतन्त्र ज्ञानानन्दस्वभावी पदार्थ हूँ और जगत् के समस्त पदार्थ मुझसे त्रिकाल भिन्न हैं- ऐसी भेदज्ञानरूप ज्योति का उदय होता है, वही सम्यग्ज्ञान- दर्शनरूप धर्म है। प्रश्न 60 - बाह्य द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव के अनुसार पर्याय बदलती है - ऐसा मानने में क्या दोष है ? उत्तर - ऐसा माननेवाले ने दो द्रव्यों को भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र नहीं माना और द्रव्य में अगुरुलघुत्व गुण का स्वीकार भी नहीं किया; इसलिए द्रव्य का नाश आदि दोष आते हैं। प्रश्न 61 - छहों द्रव्यों तथा उनके गुण-पर्याय की स्वतन्त्रता की मर्यादा किस गुण से है ?
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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