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________________ 240 उपादान-निमित्त की स्वतन्त्रता प्रगट करता है, उस समय गुरु को निमित्त कहा जाता है, किन्तु वह ज्ञान, गुरु से नहीं हुआ है। इस प्रकार दोनों की स्वतन्त्रता है। जब जीव में प्रथम सम्यग्ज्ञान का पुरुषार्थ होता है, तब गुरु की देशना का योग होता ही है, किन्तु जब तक जीव का लक्ष्य वाणी की ओर है, तब तक राग है और जब जीव, वाणी का लक्ष्य छोड़कर स्वभाव का निर्णय करता है, तब सम्यग्ज्ञान होता है और गुरु को उसका निमित्त कहा जाता है। गुरु के बहुमान से शिष्य यह भी कहता है कि मुझे गुरु से ज्ञान हुआ, गुरु ने बड़ा उपकार किया। यह कहना कि मुझे 'गुरु से ज्ञान हुआ है', विनय का व्यवहार है। प्रश्न – ज्ञान तो स्वयं से ही हुआ है, गुरु से नहीं हुआ, यह जानते हुए भी यों कहना कि गुरु से ज्ञान हुआ है, क्या कपट नहीं कहलायेगा? उत्तर - व्यवहार में ऐसा ही कहा जाता है, यह कपट नहीं किन्तु यथार्थ सिद्धान्त है। गुरु के बहुमान का शुभविकल्प उत्पन्न हुआ है, इसलिए निमित्त में आरोप किया जाता है। प्रश्न – गुरु के बहुमान का विकल्प उठता है, वह तो ठीक है, किन्तु यह क्यों कहा जाता है कि 'गुरु से ज्ञान हुआ है ?' उत्तर – बहुमान का विकल्प उठा है, इसलिए निमित्त में आरोप करके व्यवहार से वैसा कहा जाता है। आरोप की भाषा ऐसी ही होती है, किन्तु वास्तव में गुरु से ज्ञान नहीं हुआ है। यदि गुरु से ज्ञान होवे तो सभी को ज्ञान हो जाता। जो स्वयं पुरुषार्थ से ज्ञान करता है, उसी के लिए गुरु को निमित्तरूप में माना जाता है - यही सिद्धान्त है।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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