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________________ 176 प्रकरण छठवाँ - पहुँचते हैं... ऐसे 'अर्थ' वे द्रव्य हैं; जो द्रव्यों को आश्रयरूप से पाते-प्राप्त करते-पहुँचते हैं... ऐसे 'अर्थ' वे गुण है; जो द्रव्यों को क्रम - परिणाम से पाते- प्राप्त करते-पहुँचते है... ऐसे 'अर्थ' वे पर्यायें हैं । (प्रवचनसार, गाथा 87 की टीका) (2) 'उपादान, निमित्त को पाकर परिणमित होता है ' - यह कथन व्यवहारनय का है। यह मात्र निमित्त का ज्ञान कराने के लिए है । उपादान कभी भी वास्तव में निमित्त को प्राप्त नहीं करता, इसलिए 'किसी स्थान पर व्यवहारनय को मुख्यतासहित व्याख्यान है उसे 'ऐसा नहीं है, किन्तु निमित्तादि की अपेक्षा से यह उपचार किया है' - ऐसा जानना चाहिए।' (देहली से प्रकाशित मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 369 ) (3) ... उसी प्रकार जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है - ऐसा द्रव्य भी - कि जो उचित बहिरङ्ग साधनों की सन्निधि के सद्भाव में अनेक प्रकार की अनेक अवस्थाएँ करता है, वह अन्तरङ्ग साधनभूत स्वरूप कर्ता के और स्वरूप करण के सामर्थ्यरूप स्वभाव द्वारा अनुगृहीत होने पर, उत्तर अवस्थारूप उत्पन्न होता हुआ उस उत्पाद द्वारा लक्षित होता है.... ( श्री प्रवचनसार गाथा 95 की टीका) इस प्रकार प्रति समय के उत्पाद (कार्य) के समय उचित बहिरङ्ग साधनों की (कर्मादि निमित्तों की) सन्निधि (उपस्थिति / निकटता) होती ही है - ऐसा यहाँ बतलाया है । ( 4 ) ... ऐसा होने से, सर्व द्रव्यों को, निमित्तभूत अन्य द्रव्य अपने (अर्थात् सर्व द्रव्यों के) परिणाम के उत्पादक हैं ही नहीं; सर्व द्रव्य ही निमित्तभूत अन्य द्रव्यों के स्वभाव का स्पर्श
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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