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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 173 (2) यहाँ आशय इतना ही है कि जहाँ कार्य हो, वहाँ उचित निमित्त होता ही है; न हो ऐसा नहीं होता। (3) जगत् में प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय परिणमन हो ही रहा है और कार्य को अनुकूल निमित्त भी सदैव प्रति समय होता है; अत: फिर 'निमित्त के कारण कार्य हुआ', 'निमित्त न हो तो कार्य नहीं होता' - इत्यादि तर्कों का अवकाश ही कहाँ रहा? कार्य की उत्पत्ति और उचित निमित्त की उपस्थिति के बीच सूक्ष्मदृष्टि से समयभेद है ही नहीं। (4) निमित्त का अस्तित्व नैमित्तिक कार्य को प्रगट करता है, न कि उस कार्य की पराधीनता सूचित करता है। (5) उपादान में कार्य हो, तभी उचित बहिरङ्ग साधन 'निमित्त' नाम प्राप्त करता है, इसके बिना वह निमित्त नहीं कहलाता।। (6) निमित्त, पर होने से वह उपादान में मिलकर या दूर रहकर उसे मदद, असर, सहायता, प्रभाव, प्रेरणा या आधार नहीं दे सकता क्योंकि उसका उपादान में अत्यन्त अभाव है। (7) प्रति समय प्रत्येक द्रव्य त्रिस्वभावस्पर्शी, अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - इन तीन स्वभावयुक्त होता है और कार्य के उत्पाद के समय बहिरङ्ग साधनों, अर्थात् निमित्त की उपस्थिति होती ही है। ( प्रवचनसार, गाथा 102 की टीका) इससे सिद्ध होता है कि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और बहिरङ्ग साधनों / निमित्त का समय एक ही होता है। ऐसा स्वाभाविक नियम ही है; इसलिए कार्य की उत्पत्ति के समय उचित निमित्त होता ही है; इसलिए निमित्त की उपस्थितिअनुपस्थिति का या उसकी प्रतीक्षा करने का प्रश्न ही नहीं रहता।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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