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________________ 130 प्रकरण पाँचवाँ _ 'पञ्चाध्यायी उत्तरार्द्ध' में - इस विकारी भाव को गाथा 76 में तद्गुणाकृति' कहा है; गाथा 105 में तद्गुणाकार संक्रान्ति' कहा है; गाथा 130 में 'परगुणाकार स्वगुणच्युति' कहा है तथा गाथा 242 में स्वस्वरूपच्युत' कहा है और उस पर्याय में अपना ही दोष है, अन्य किसी का उसमें किञ्चित् दोष व हस्तक्षेप नहीं है - ऐसा बतलाने के लिए उसे गाथा 60 और 73 में 'जीव स्वयं अपराधवान् है' - ऐसा कहा है। इसलिए परद्रव्य या कर्म का उदय जीव में विकार करता-कराता है - ऐसा मानना मिथ्या है। जो निमित्तकारण है, वह उपचरित कारण है, किन्तु वास्तविक कारण नहीं है। इसलिए उसे गाथा 352 में अहेतवत्'- 'अकारण समान' कहा है। [पञ्चाध्यायी (गुजराती) उत्तरार्द्ध, गाथा 72 का भावार्थ ] (8) विकार, वह आत्मद्रव्य का त्रिकाली स्वभाव नहीं है, किन्तु क्षणिक योग्यतारूप पर्याय स्वभाव है; वह उदयभाव होने के कारण पर्याय अपेक्षा से जीव का स्वतत्त्व है। जड़कर्म के साथ जीव का अनादि (निमित्त-नैमित्तिक) सम्बन्ध है और जीव उसके वश होता है, इसलिए विकार होता है, किन्तु कर्म के कारण विकारभाव नहीं होता - ऐसा भी औदयिकभाव सिद्ध करता है।' (मोक्षशास्त्र, हिन्दी आवृत्ति पृष्ठ 211) ___ कोई निमित्त विकार नहीं कराता, किन्तु जीव स्वयं निमित्ताधीन होकर विकार करता है। जीव जब पारिणामिकभावरूप अपने स्वभाव की ओर का लक्ष्य करके स्वाधीनता प्रगट करता है, तब निमित्ताधीनपना दूर होकर शुद्धता प्रगट होती है - ऐसा औपशमिकभाव, साधकदशा का क्षायोपशमिकभाव और
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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