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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 129 'परद्रव्य ही मुझे रागादिक उत्पन्न कराते हैं; वे नय विभाग को नहीं समझते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं। यह रागादिक जीव के सत्व में उत्पन्न होते हैं, परद्रव्य तो निमित्तमात्र हैं - ऐसा मानना वह सम्यग्ज्ञान है... (समयसार, गाथा 371 की टीका का भावार्थ) (5) ...परमार्थ से आत्मा अपने परिणामस्वरूप, ऐसे उस भावकर्म का ही कर्ता है --- परमार्थ से पुद्गल अपने परिणाम -स्वरूप, ऐसे उस द्रव्यकर्म का ही कर्ता है, परन्तु आत्मा के कर्मस्वरूप भावकर्म का नहीं। (प्रवचनसार, गाथा 122 की टीका) (6)... जब तक स्व-पर का भेदज्ञान न हो, तब तक तो उसे रागादिक का - अपने चेतनरूप भावकों का कर्ता मानो, और भेदविज्ञान होने के पश्चात् शुद्ध विज्ञानघन, समस्त कर्तापने के भाव से रहित एक ज्ञाता ही मानो; इस प्रकार एक ही आत्मा में कर्तापना तथा अकर्तापना - यह दोनों भाव विवक्षावश सिद्ध होते हैं । ऐसा स्वाद्वाद मत जैनों का है.... ऐसा (स्याद्वाद अनुसार) मानने से पुरुष को संसार-मोक्ष आदि की सिद्धि होती है; सर्वथा एकान्त मानने से सर्व निश्चय-व्यवहार का लोप होता है। (समयसार, कलश 205 भावार्थ) (7) जीव यह विकार अपने दोष से करता है; इसलिए वे स्वकृत हैं, किन्तु उन्हें स्वभावदृष्टि के पुरुषार्थ द्वारा अपने में से दूर किया जा सकता है... अशुद्ध निश्चयनय से वह स्वकृत है और दूर किया जा सकता है, इसलिए निश्चय से वह परकृत है... किन्तु वे परकृतादि नहीं हो जाते, मात्र अपने में दूर किये जा सकते हैं, इतना ही वे दर्शाते हैं। [पञ्चाध्यायी (गुजराती ) उत्तरार्द्ध, गाथा 72 का भावार्थ ]
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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