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________________ १२ गुणस्थान- प्रकरण स्वामी हैं, क्योंकि, काल तत्परिणामात्मक है। अथवा, परिवर्तन या प्रदक्षिणा लक्षणवाले इस सूर्यमण्डल के उदय और अस्त होने से दिन और रात्रि आदि की उत्पत्ति होती है। ६. शंका - काल किससे किया जाता है, अर्थात् काल का साधन क्या है ? समाधान - परमार्थकाल से काल अर्थात् व्यवहारकाल निष्पन्न होता है। ७. शंका - काल कहाँ पर है, अर्थात् काल का अधिकरण क्या है ? समाधान - त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों से परिपूरित एकमात्र मानुषक्षेत्रसम्बन्धी सूर्यमण्डल में ही काल है। अर्थात् काल का आधार मनुष्यक्षेत्रसम्बन्धी सूर्यमण्डल है । ८. शंका यदि एकमात्र मनुष्यक्षेत्र के सूर्यमण्डल में ही काल अवस्थित है, तो सर्व पुद्गलों से अनन्तगुणे तथा प्रदीप के समान स्वपरप्रकाशन के कारणरूप और यवराशि के समान समयरूप से अवस्थित उस काल के द्वारा छह द्रव्यों के परिणाम कैसे प्रकाशित किये जाते हैं? समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, मापे जानेवाले द्रव्यों से पृथग्भूतमागध (देशीय) प्रस्थ के समान मापने में कोई विरोध नहीं है। न इसमें कोई अनवस्था दोष ही आता है; क्योंकि, प्रदीप के साथ व्यभिचार आता है। - अर्थात् जैसे दीपक, घट, पट आदि अन्य पदार्थों का प्रकाशक होने पर भी स्वयं अपने आपका प्रकाशक होता है, उसे प्रकाशित करने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं हुआ करती है। इसीप्रकार से कालद्रव्य भी अन्य जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों के परिवर्तन का निमित्तकारण होता हुआ भी अपने आपका परिवर्तन स्वयं ही करता है, उसके लिए किसी अन्य द्रव्य की आवश्यकता नहीं पड़ती है । इसीलिए अनवस्था दोष भी नहीं आता है । ९. शंका - देवलोक में तो दिन-रात्रि रूप का काल का अभाव 7 षट्खण्डागम सूत्र - १ है, फिर वहाँ पर काल का व्यवहार कैसे होता है ? समाधान – नहीं; क्योंकि, यहाँ के काल से देवलोक में काल का व्यवहार होता है । १३ १०. शंका - यदि जीव और पुद्गलों का परिणाम ही काल है, तो सभी जीव और पुद्गलों में काल को संस्थित होना चाहिए । तब ऐसी दशा में 'मनुष्य क्षेत्र के एक सूर्यमंडल में ही काल स्थित है' यह बात घटित नहीं होती है? समाधान - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, उक्त कथन निरवद्य (निर्दोष) है। किन्तु लोक में या शास्त्र में उसप्रकार से संव्यवहार नहीं है, पर अनादिनिधनस्वरूप से सूर्यमण्डल की क्रिया-परिणामों में ही काल का संव्यवहार प्रवृत्त है। इसलिए इसका ही ग्रहण करना चाहिए। ११. शंका - काल कितने समय तक रहता है? समाधान काल अनादि और अपर्यवसित है । अर्थात् काल का न आदि है, न अन्त है । १२. शंका - काल का परिणमन करनेवाला काल क्या उससे पृथग्भूत है, अथवा अनन्य ( अपृथग्भूत) ? पृथग्भूत तो कहा नहीं जा सकता है, अन्यथा अनवस्थादोष का प्रसंग प्राप्त होगा। और न अनन्य (अपृथग्भूत) ही; क्योंकि, काल के काल का अभाव-प्रसंग आता है। इसलिए काल का काल से निर्देश घटित नहीं होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं। इसका कारण यह है कि पृथक् पक्ष में कहा गया दोष तो संभव है नहीं; क्योंकि, हम काल के काल को काल से भिन्न मानते ही नहीं है। और न अनन्य या अभिन्न पक्ष में दिया गया दोष ही प्राप्त होता है; क्योंकि, वह तो हमें इष्ट ही है, (और इष्ट वस्तु उसी के लिए दोषदायी नहीं हुआ करती है)। तथा, काल का काल से निर्देश नहीं होता हो, ऐसी भी बात नहीं है; क्योंकि अन्य सूर्यमण्डल में स्थित कालद्वारा उससे पृथग्भूत सूर्यमण्डल
SR No.009451
Book TitleGunsthan Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Shastri, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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