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________________ गुणस्थान-प्रकरण जीवस्थान आदि ग्रन्थों में द्रव्यकाल नहीं कहा गया है, इसलिए उसका अभाव नहीं कह सकते हैं; क्योंकि, यहाँ जीवस्थान में छह द्रव्यों के प्रतिपादन का अधिकार नहीं है। इसलिए 'द्रव्यकाल है' ऐसा स्वीकार करना चाहिए। अथवा, जीव और अजीव आदि के योग से बने हुए आठ भंगरूप द्रव्य को नोआगमद्रव्यकाल कहते हैं। विशेषार्थ - जीव और अजीवद्रव्य के संयोग से काल के आठ भंग इसप्रकार होते हैं - १. एक जीवकाल २. एक अजीवकाल ३. अनेक जीवकाल ४. अनेक अजीवकाल ५. एक जीव एक अजीवकाल ६. अनेक जीव एक अजीवकाल ७. एक जीव अनेक अजीवकाल ८और अनेक जीव अनेक अजीवकाल । (देखो मंगलसम्बन्धी आठ आधार, सत्प्र. १, पृ. १९) काल के निमित्त से होनेवाले एक जीवसम्बन्धी परिवर्तन को एक जीवकाल कहते हैं। इसप्रकार से आठों भंगों का स्वरूप जान लेना चाहिए। टीका - आगम और नोआगम के भेद से भावकाल दो प्रकार का है। काल-विषयक प्राभृत का ज्ञायक और वर्तमान में उपयुक्त जीव आगमभावकाल है। द्रव्यकाल से जनित परिणाम या परिणमन नोआगमभावकाल कहा जाता है। २. शंका - पुद्गल आदि द्रव्यों के परिणाम के 'काल' यह संज्ञा कैसे संभव है? समाधान - यह कोई दोष नहीं; क्योंकि, कार्य में कारण के उपाचार के निबंधन से पुद्गलादि द्रव्यों के परिणाम के भी 'काल' संज्ञा का व्यवहार हो सकता है। पंचास्तिकायप्राभृत में व्यवहारकाल का अस्तित्व कहा भी गया है - षट्खण्डागमसूत्र-१ गाथार्थ - सत्तास्वरूप स्वभाववाले जीवों के, तथैव पुद्गलों के और 'च' शब्द से धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य के परिवर्तन में जो निमित्तकारण हो, वह नियम से कालद्रव्य कहा गया है ।।७।। समय, निमिष, काष्ठा, कला, नाली तथा दिन और रात्रि, मास, ऋतु, अयन और संवत्सर इत्यादि काल परायत्त है; अर्थात् जीव, पुद्गल एवं धर्मादिक द्रव्यों के परिवर्तनाधीन है।।८।। वर्तनारहित चिर अथवा क्षिप्र की, अर्थात् परत्व और अपरत्व की, कोई सत्ता नहीं है। वह वर्तना भी पुद्गलद्रव्य के बिना नहीं होती है, इसलिए कालद्रव्य पुद्गल के निमित्त से हुआ कहा जाता है।।९।। ३. शंका - ऊपर वर्णित अनेक प्रकार के कालों में से यहाँ पर किस काल से प्रयोजन है? समाधान - नोआगमभावकाल से प्रयोजन है। वह काल; समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, पूर्व, पर्व, पल्योपम, सागरोपम आदि रूप है। ४. शंका - तो फिर इसके 'काल' ऐसा व्यपदेश कैसे हुआ? समाधान - नहीं; क्योंकि, जिसके द्वारा कर्म, भव, काय और आयुकी स्थितियाँ कल्पित या संख्यात की जाती हैं अर्थात् कही जाती हैं, उसे काल कहते हैं। इसप्रकार की काल शब्द की व्युत्पत्ति है। काल, समय और अद्धा, ये सब एकार्थवाची नाम हैं। समय आदि का अर्थ कहते हैं। एक परमाणु का दूसरे परमाणु के व्यतिक्रमण करने में जितना काल लगता है, उसे समय कहते हैं। अर्थात्, चौदह राजु आकाश प्रदेशों के अतिक्रमण मात्र काल से जो चौदह राजू अतिक्रमण करने में समर्थ परमाणु है, उसके एक परमाणु अतिक्रमण करने के काल का नाम समय है। असंख्यात समयों को ग्रहण करके एक आवली होती है।
SR No.009451
Book TitleGunsthan Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Shastri, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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