SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान-प्रकरण अविरतसम्यक्त्व जो परिणाम सम्यग्दर्शन से सहित हो, परन्तु इन्द्रिय-विषयों से और त्रसस्थावर की हिंसा से अविरत हो अर्थात् एकदेश या सर्वदेश किसी भी प्रकार के संयम से रहित हो; उस परिणाम को अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं। अप्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के उदय से असंयत होने पर भी पाँच, छह या सात (अनन्तानुबन्धी की चार और दर्शनमोहनीय की तीन) प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की दशा में होनेवाले जीव के औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भावों को अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान के साथ 'असंयत' शब्द का जो प्रयोग किया है वह अन्तदीपक है। अतएव असंयत भाव प्रथम गुणस्थान से लेकर इस चतुर्थ गुणस्थान तक ही पाया जाता है। क्योंकि ऊपर के गुणस्थानों में से पाँचवें के साथ देशसंयत या संयतासंयत और फिर उसके ऊपर के सभी गुणस्थानों के साथ संयत विशेषण पाया जाता है। देशविरत देशविरत प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के उदय काल में अर्थात् निमित्त से पूर्ण संयमभाव प्रगट नहीं होने पर भी सम्यग्दर्शनपूर्वक, अणुव्रतादि सहित तथा दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त होनेवाली वीतराग दशा को देशविरत गुणस्थान कहते हैं। यहाँ पर प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से पूर्ण संयम तो नहीं होता, किन्तु यहाँ इतनी विशेषता होती है कि अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न रहने से एकदेश व्रत होते हैं। अतएव इस गुणस्थान का नाम देशव्रत या देशसंयम है। इसी को पाँचवाँ गुणस्थान कहते हैं। बारह अंग के ज्ञाता सौधर्म इन्द्र, लौकांतिकदेव जितने और जैसे सुखी हैं उनसे भी देशविरत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच एवं मनुष्य अधिक सुखी हैं; क्योंकि इन्द्र असंयमी है और तिर्यंच और मनुष्य सम्यक्त्व के साथ संयमासंयमी भी है। (७ अप्रमत्तविरत में) ६ प्रमत्तविरत से (७ अप्रमत्तविरत में ६ अप्रमत्तविरत से मरण की अपेक्षा से ५ से ११वें गुणस्थानों में से किसी से भी चौथे गुणस्थान में आगमन | देशविरत से गमन देशविरत में आगमन (५ देशविरत में) ५ देशविरत अविरत सम्यक्त्व से गमन अविरत सम्यक्त्व में आगमन १४ अविरत सम्यक्त्व में) ४ अविरत सम्यक्त्व से (३ मिश्र में) ४३ मिश्र में १२. सासादन में D द्रव्यलिंगी साधु ओर श्रावक सादि मिथ्यादृष्टि हो तो २ मिश्र से (२. सासादन में (१ मिथ्यात्म में 9. मिथ्यात्व से र १ मिथ्यात्म में) | १ मिथ्यात्व से
SR No.009451
Book TitleGunsthan Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Shastri, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy