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________________ २० गुणस्थान- प्रकरण केवल पहले ग्रहण किये हुए परमाणु ही हों, उस पुद्गलपुंज को गृहीत कहते हैं। जिस समयबद्ध में ऐसे परमाणु हों कि जिनका जीव ने पहिले कभी ग्रहण नहीं किया हो; उस पुद्गलपुंज को अगृहीत कहते हैं। जिस समय प्रबद्ध में दोनों प्रकार के परमाणु हो, उस पुद्गलपुंज को मिश्र कहते हैं। टीका- अब यहाँ पर उक्त तीनों प्रकार के कालों के परिवर्तन का क्रम कहते हैं। वह इस प्रकार है - पुद्गलपरिवर्तन के आदि समय से लेकर अनन्त काल तक अगृहीतग्रहण का काल होता है; क्योंकि, उसमें शेष दो प्रकार के कालों का अभाव है। पुनः अगृहीतग्रहण काल के अन्त में एक बार मिश्रपुद्गलपुंज के ग्रहण करने का काल आता है। फिर भी द्वितीय बार अगृहीतग्रहण काल के द्वारा अनन्त काल जाकर एक बार मिश्रपुद्गलपुंज के ग्रहण करने का काल आता है। इसी प्रकार तृतीय बार भी अगृहीतग्रहण काल के द्वारा अनन्त काल जाकर एक बार मिश्रग्रहणकालरूप से परिणमन होता है। इसप्रकार से मिश्रग्रहण काल की भी शलाकाएँ अनन्त हो जाती हैं। पुनः अनन्त काल गृहीतग्रहण काल के द्वारा बिता कर एक बार गृहीतग्रहणकालरूप से परिणमन होता है। इस क्रम से अनन्त काल व्यतीत होता हुआ तब तक चला जाता है जब तक कि गृहीतग्रहणकाल की शलाकाएँ भी अनन्तत्व को प्राप्त हो जाती है (इसप्रकार प्रथम परिवर्तन बार व्यतीत हुआ) पुनः इसके बाद अनन्त काल मिश्रग्रहण काल की अपेक्षा बिताकर एक बार अगृहीतग्रहण काल परिणत होता है। इसप्रकार इन दोनों प्रकार के कालों से अनन्त काल बिताकर एक बार गृहीतग्रहण काल होता है। 11 षट्खण्डागम सूत्र - ४ २१ इसतरह उक्त प्रकार से जीव का काल तब तक व्यतीत होता हुआ चला जाता है; जब तक कि यहाँ की गृहीतग्रहणकाल सम्बन्धी शलाकाएँ भी अनन्तता को प्राप्त हो जाती हैं। इसप्रकार दो परिवर्तन बार व्यतीत हुई । पुनः अनन्त काल मिश्र ग्रहण काल के द्वारा बिताकर एक बार गृहीतग्रहण काल का परिणमन होता है । इसीप्रकार से गृहीतग्रहण काल की शलाकाएँ अनन्तता को प्राप्त हो जाती हैं। तत्पश्चात् एक बार अगृहीतग्रहण - कालरूप से परिणमन होता है । पुनः इसप्रकार से भी अनन्तकाल तब तक व्यतीत होता है जब तक कि यहाँ पर भी अगृहीतगृहणकालसंबंधी शलाकाएँ अनन्तता को प्राप्त होती है, यह तीसरा परिवर्तन है । अब चतुर्थ परिवर्तन को कहते हैं। वह इसप्रकार है - अनन्त काल गृहीतग्रहणकालसम्बन्धी बिताकर एक बार मिश्रग्रहण काल का परिवर्तन होता है। इसप्रकार इन दोनों प्रकार के कालों द्वारा अनन्त काल बिताता है जब तक कि यहाँ की मिश्रग्रहणकालसम्बन्धी शलाकाएँ अनन्तता को प्राप्त होती हैं। इसके पश्चात् एक बार अगृहीतग्रहणकालरूप से परिणमित होता है। इसके पश्चात् फिर भी इसके आगे इस ही क्रम से पुद्गलपरिवर्तन के अन्तिम समय तक काल व्यतीत होता जाता है। ( इस चतुर्थ परिवर्तन के समाप्त हो जाने पर) नोकर्मपुद् गल परिवर्तन के आदिम समय में जीव के द्वारा नोकर्मस्वरूप से जो पुद्गल ग्रहण किये थे, वे ही पुद्गल द्वितीयादि समयों में अकर्मभाव को प्राप्त होकर के जिस काल में वे ही शुद्ध पुद्गल आने लगते हैं; वह काल ‘पुद्गलपरिवर्तन' इस नाम से कहा जाता है। विशेषार्थ - परिवर्तन पाँच प्रकार का है - १. द्रव्यपरिवर्तन २. क्षेत्रपरिवर्तन ३. कालपरिवर्तन ४. भवपरिवर्तन और ५. भावपरिवर्तन ।
SR No.009451
Book TitleGunsthan Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Shastri, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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