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________________ समयसारनाटक- गर्भित गुणस्थान गुणस्थान अधिकार पूर्ण होने के बाद समयसार नाटक में आगे और चार छंद दिये हैं। ये छन्द गुणस्थान के संबंध में नहीं हैं; तथापि तत्त्वबोधक होने से यहाँ दिये हैं। रसिकजन उनका लाभ लेंगे ही। ४६ बंध का मूल आस्रव और मोक्ष का मूल संवर है (दोहा) चौदह गुनथानक दसा, जगवासी जिय मूल । आस्रव संवर भाव द्वै, बंध मोरव के मूल ।। ११२ ।। अर्थ - गुणस्थानों की ये चौदह अवस्थाएँ संसारी अशुद्ध जीवों की हैं। आस्रव और संवरभाव बन्ध और मोक्ष की जड़ हैं। आस्रव, बन्ध की जड़ है और संवर, मोक्ष की जड़ है ।। ११२ ।। संवर को नमस्कार (चौपाई) आस्रव संवर परनति जौलौं । जगतनिवासी चेतन तौलौं । आस्रव संवर विधि विवहारा । दोऊ भव पथ सिव-पथ धारा ।।११३ ॥ आस्रवरूप बंध उतपाता । संवर ग्यान मोरख-पद-दाता ॥ जा संवर सौं आस्रव छीजै । ताक नमस्कार अब कीजै ।। ११४ ।। अर्थ - जब तक आस्रव और संवर के परिणाम हैं, तब तक जीव का संसार में निवास है । उन दोनों में आस्रव-विधि का व्यवहार संसार-मार्ग की परिणति है और संवर - विधि का व्यवहार मोक्ष-मार्ग की परिणति है ।। ११३ ।। आस्रव, बन्ध का उत्पादक है और संवर, ज्ञान का रूप है; मोक्षपद का देनेवाला है। जिस संवर से आस्रव का अभाव होता है, उसे नमस्कार करता हूँ ।। ११४ ।। ग्रन्थ के अंत में संवरस्वरूप ज्ञान को नमस्कार (सवैया इकतीसा ) जगत के प्रानी जीति है रह्यौ गुमानी ऐसौ, आस्रव असुर दुखदानी महाभीम है। ताकौ परताप खंडिवै कौं प्रगट भयौ, धर्म कौ धरैया कर्म रोग कौ हकीम है । (24) अयोगकेवली गुणस्थान ४७ जाकै परभाव आगे भागें परभाव सब, नागर नवल सुखसागर की सीम है। संवर कौ रूप धरै साधै सिवराह ऐसी, ग्यान पातसाह ताकौं मेरी तसलीम है ।। ११५ ।। शब्दार्थ :- गुमानी अभिमानी असुर राक्षस । महाभीम = बड़ा भयानक । परताप (प्रताप) = तेज खंडिवै कौं नष्ट करने के लिये । हकीम = वैद्य । परभाव ( प्रभाव ) = पराक्रम । परभाव = पुद्गलजनित विकार | नागर = चतुर । नवल नवीन सीम = मर्यादा । पातसाह = बादशाह। तसलीम = वन्दना । अर्थ :- १. आस्रवरूप राक्षस, जगत के जीवों को अपने वश में करके अभिमानी हो रहा है। २. जो अत्यन्त दुःखदायक और महा भयानक है। ३. उसका वैभव नष्ट करने के लिये जो उत्पन्न हुआ है । ४. जो धर्म का धारक है । ५. जो कर्मरूप रोग के लिये वैद्य के समान है । ६. जिसके प्रभाव के आगे परद्रव्यजनित राग-द्वेष आदि विभाव दूर भागते हैं । ७. जो अत्यन्त प्रवीन और अनादिकाल से नहीं पाया था, इसलिये नवीन है । ८. जो सुख के समुद्र की सीमा को प्राप्त हुआ है। ९. जिसने संवर का रूप धारण किया है। १०. जो मोक्षमार्ग का साधक है - ऐसे ज्ञानरूप बादशाह को मेरा प्रणाम है ।। ११५ ।। १. असातावेदनीय २. देवगति । पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, छह संस्थान, तीन आंगोपांग, छह संहनन, पाँच वर्ण, पाँच रस, आठ स्पर्श, ५३. देवगति प्रायोग्यानुपूर्व ५४. अगुरुलघु ५५. उपघात ५६ परघात ५७. उच्छ्वास ५८ प्रशस्तविहायोगति ५९. अप्रशस्तविहायोगति ६०. अपर्याप्तक ६१. प्रत्येक शरीर ६२. स्थिर ६३. अस्थिर ६४. शुभ ६५. अशुभ ६६. दुर्भग ६७. सुस्वर ६८. दुस्वर ६९. अनादेय ७०. अयशःकीर्ति ७१. निर्माण ७२. नीच गोत्र ७३. साता वेदनीय ७४. मनुष्यगति ७५. मनुष्यायु ७६. पंचेन्द्रिय जाति ७७. मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्व ७८. त्रस ७९. बादर ८०. पर्याप्तक ८१. सुभग ८२. आदेय ८३. यशः कीर्ति ८४. तीर्थंकर ८५. उच्चगोत्र ।
SR No.009450
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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