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________________ समयसारनाटक-गर्भित गुणस्थान केवली भगवान को अठारह दोष नहीं होते (कुण्डलिया) दूषन अट्ठारह रहित, सो केवलि सजोग। जनम मरन जाकै नहीं, नहिं निद्रा भय रोग। नहिं निद्रा भय रोग, सोग विस्मय न मोह मति । जरा खेद परस्वेद, नांहि मद बैर विषै रति।। चिंता नांहि सनेह, नांहि जहँ प्यास न भूख न । थिर समाधि सुख सहित, रहित अट्ठारह दूषन ||१०८।। शब्दार्थ :- सोग = शोक । विस्मय = आश्चर्य । जरा = बुढ़ापा । परस्वेद (प्रश्वेद) = पसीना । सनेह = राग। अर्थ - जन्म, मृत्यु, निद्रा, भय, रोग, शोक, आश्चर्य, मोह, बुढ़ापा, खेद, पसीना, गर्व, द्वेष, रति, चिंता, राग, प्यास, भूख - ये अठारह दोष सयोगकेवली जिनराज को नहीं होते और निर्विकल्प आनन्द में सदा लीन रहते हैं ।।१०८।। केवलज्ञानीप्रभु के परमौदारिक शरीर का अतिशय (कुण्डलिया) वानी जहाँ निरच्छरी, सप्त धातु मल नांहि । केस रोम नख नहिं बढ़े, परम उदारिक माहि।। परम उदारिक माहि, जाहि इंद्रिय विकार नसि। यथाख्यातचारित प्रधान, थिर सुकल ध्यान ससि।। लोकालोक प्रकास-करन केवल रजधानी। सो तेरम गुनथान, जहाँ अतिशयमय वानी ।।१०९।। शब्दार्थ :- निरच्छरी = अक्षर रहित । केस (केश) = बाल । नख = नाखून । उदारिक (औदारिक) = स्थूल । ससि (शशि) = चन्द्रमा । अर्थ - तेरहवें गुणस्थान में भगवान की अतिशयमय निरक्षरी दिव्यध्वनि खिरती है। उनका परमौदारिक शरीर सप्त धातु और मल-मूत्र रहित होता है। केश/रोम और नाखून नहीं बढ़ते । इन्द्रियों के विषय नष्ट हो जाते हैं। पवित्र यथाख्यातचारित्र प्रगट होता है। स्थिर शुक्लध्यानरूप चन्द्रमा का उदय होता है। लोकालोक के प्रकाशक केवलज्ञान पर उनका साम्राज्य रहता है ।।१०९।। (१४ अयोगकेवली चौदहवें गुणस्थान का वर्णन-प्रतिज्ञा (दोहा) यह सयोगगुनथान की, रचना कही अनूप। अब अयोगकेवल दसा, कहूँ जथारथ रूप||११०।। अर्थ - यह सयोगी गुणस्थान का वर्णन किया, अब अयोगकेवली गुणस्थान का वास्तविक वर्णन करता हूँ।।११०।। चौदहवें गुणस्थान का स्वरूप (सवैया इकतीसा) जहाँ काहू जीव कौं असाता उदै साता नाहिं, काह कौं असाता नाहि, साता उदै पाइयै। मन वच काय सौं अतीत भयौ जहाँ जीव, जाकौ जसगीत जगजीतरूप गाडयै।। जामैं कर्म प्रकृति की सत्ता जोगी जिन की, अंतकाल द्वै समै मैं सकल विपाइयै। जाकी थिति पंच लघु अच्छर प्रमान सोई, चौदहौं अजोगीगुनठाना ठहराइयै ||१११।। शब्दार्थ :- अतीत = रहित । खिपाइयै = क्षय करते हैं। लघु = ह्रस्व । अर्थ :- १. जहाँ पर किसी जीव को असाता का उदय रहता है साता का नहीं रहता और किसी जीव को साता का उदय रहता है असाता का नहीं रहता। २. जहाँ जीव के मन-वचन-काय के योगों की प्रवृत्ति सर्वथा शून्य हो जाती है। ३. जिसके जगज्जयी होने के गीत गाये जाते हैं। ४. जिसको सयोगी जिनके समान अघातिया कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है, सो उन्हें अन्त के दो समयों में सर्वथा क्षय करते हैं। ५. इस गुणस्थान का काल पंच ह्रस्व अक्षर प्रमाण है, वह अयोगी जिन चौदहवाँ गुणस्थान है।।१११ ।। १. केवलज्ञानी भगवान की असाता का उदय बाँचकर विस्मित नहीं होना चाहिये। वहाँ असाता कर्म, उदय में सातारूप परिणमता है। २. पुनि चौदहें चौथे सुकलबल बहत्तर तेरह हतीं, - 'जिनेन्द्रपंचकल्याणक' (23)
SR No.009450
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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