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________________ प्रमत्त गुणस्थान समयसारनाटक-गर्भित गुणस्थान रोगनि कौ न करें इलाज ऐसे मुनिराज, वेदनी के उदै ये परीसह सहतु हैं।।८५॥ अर्थ :- गर्मी के दिनों में धूप में खड़े रहते हैं, यह उष्णपरीषहजय है। शीत ऋतु में जाड़े से नहीं डरते, यह शीतपरीषहजय है। भूख लगे तब धीरज रखते हैं, यह भूखपरीषहजय है। प्यास में पानी नहीं चाहते, यह तृषापरीषहजय है। डांस-मच्छर का भय नहीं करते, यह दंशमशकपरीषह का जीतना है। धरती पर सोते हैं, यह शय्यापरीषहजय है। मारने-बाँधने के कष्ट में अचल रहते हैं, यह बंधपरीषहजय है। चलने का कष्ट सहते हैं, यह चर्यापरीषहजय है। तिनका-काँटा लग जावे तो घबराते नहीं, यह तृणस्पर्शपरीषह का जीतना है। मल और दुर्गंधित पदार्थों से ग्लानि नहीं करते, यह मलपरीषहजय है। रोगजनित कष्ट सहते हैं, पर उसके निवारण का उपाय नहीं करते, यह रोगपरीषहजय है। इसप्रकार वेदनीय कर्म के उदयजनित ग्यारह परीषह मुनिराज सहते हैं ।।८५ ।। चारित्रमोहजनित सात परीषह (कुण्डलिया) ऐते संकट मुनि सहै, चारितमोह उदोत । लज्जा संकुच दुख धरै, नगन दिगंबर होत ॥ नगन दिगम्बर होत, श्रुत रति स्वाद न सेवै। तिय सनमुख हग रोकि, मान अपमान न बेवै।। थिर है निरभै रहै, सहै कुवचन जग जेते। भिच्छुक पद संग्रहै, लहै मुनि संकट ऐते ||८६ ।। शब्दार्थ :- संकट = दुःख । उदोत = उदय से । श्रोत = कान । दृग = नेत्र । बेवै (वेदै) = भोगे । कुवचन = गाली । भिच्छुक = याचना । अर्थ - चारित्रमोह के उदय से मुनिराज निम्नलिखित सात परीषह सहते हैं अर्थात् जीतते हैं। (१) नग्न दिगम्बर रहने से लज्जा और संकोचजनित दुःख सहते हैं, यह नग्नपरीषहजय है। (२) कर्ण आदि इन्द्रियों के विषयों का अनुराग नहीं करना सो, अरतिपरीषहजय है। (३) स्त्रियों के हावभाव में मोहित नहीं होना, स्त्रीपरीषहजय है। (४) मान-अपमान की परवाह नहीं करते, यह सत्कारपुरस्कारपरीषहजय है। (५) भय का निमित्त मिलने पर भी आसनध्यान से नहीं हटना, सो निषद्यापरीषहजय है। (६) मूों के कटु वचन सह लेना, आक्रोशपरीषह का जीतना है। (७) प्राण जावे तो भी आहारादिक के लिये दीनतारूप प्रवृत्ति नहीं करना, यह याचनापरीषहजय है। ये सात परीषह चारित्रमोह के उदय से होते हैं ।।८६ ।। ज्ञानावरणीयजनित दो परीषह (दोहा) अलप ग्यान लघुता लखै, मति उतकरष विलोइ। ज्ञानावरन उदोत मुनि, सहै परीसह दोइ||८७।। अर्थ - ज्ञानावरणीयजनित दो परीषह हैं। अल्पज्ञान होने से लोग छोटा गिनते हैं और इससे जो दुख होता है उसे साधु सहते हैं; यह अज्ञानपरीषहजय है। ज्ञान की विशालता होने पर गर्व नहीं करते, यह प्रज्ञापरीषहजय है। ऐसी ये दो परीषह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जैन साधु सहते हैं ।।८७।। दर्शनमोहनीयजनित एक और अंतरायजनित एक परीषह (दोहा) सहै अदरसन दुरदसा, दरसन मोह उदोत । रोकै उमंग अलाभ की, अंतराय के होत ||८८॥ अर्थ - दर्शनमोहनीय के उदय से सम्यग्दर्शन में कदाचित् दोष उपजे तो वे सावधान रहते हैं - चलायमान नहीं होते, यह दर्शनपरीषहजय है। अंतरायकर्म के उदय से वांछित पदार्थ की प्राप्ति न हो तो जैनमुनि खेदखिन्न नहीं होते, यह अलाभपरीषहजय है।।८८ ।। बाईस परीषहों का वर्णन (सवैया इकतीसा) एकादस वेदनी की, चारितमोह की सात, ग्यानावरनी की दोइ, एक अंतराय की। दर्सनमोह की एक द्वाविंसति बाधा सबै, केई मनसा की, केई वाकी, केई काय की। काहूकौ अलप काहूको बहुत उनीस ताई, एक ही समै मैं उदै आवै असहाय की। (18)
SR No.009450
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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