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________________ प्रमत्त गुणस्थान समयसारनाटक-गर्भित गुणस्थान ठाड़ौ कर से आहार लघु जी एक बार, अट्ठाईस मूलगुनधारी जती जैन कौ।।८०।। शब्दार्थ :-पंचमहाव्रत = पंच पापों का सर्वथा त्याग । प्रासुक = जीव रहित । सैन (शयन) = सोना । मंजन = स्नान । केश = बाल । लुंचै = उखाड़े। मुंचै = छोड़े। कर से = हाथ से । लघु = थोड़ा। जती = साधु।। अर्थ :- पंच महाव्रत पालते हैं। पाँचों समिति पूर्वक वर्तते हैं। पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर प्रसन्न होते हैं। द्रव्य और भाव छह आवश्यक साधते हैं। त्रस जीव रहित भूमिपर करवट रहित शयन करते हैं। यावज्जीवन स्नान नहीं करते। हाथों से केशलोंच करते हैं। नग्न रहते हैं। दंतवन नहीं करते तो भी वचन और श्वास में सुगंध ही निकलती है। खड़े भोजन लेते हैं। थोड़ा भोजन लेते हैं। भोजन दिन में एक ही बार लेते हैं। ऐसे अट्ठाईस मूलगुणों के धारक जैन साधु होते हैं ।।८० ।। पंच अणुव्रत और पंच महाव्रत का स्वरूप (दोहा) हिंसा मुषा अदत्त धन, मैथन परिगह साज | किंचित त्यागी अनुव्रती, सब त्यागी मुनिराज ||८१ ॥ शब्दार्थ :- मृषा = झूठ। अदत्त = बिना दिया हुआ। अर्थ - हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पाँचों पापों के किंचित् त्यागी, अणुव्रती श्रावक और सर्वथा त्यागी, महाव्रती साधु होते हैं।।८१।। पंच समिति का स्वरूप (दोहा) चलै निरखि भावै उचित, भवै अदोष अहार| लेइ निरखि डारै निरखि, समिति पंच परकार||८२।। अर्थ - जीवजन्तु की रक्षा के लिये देखकर चलना, ईर्यासमिति है। हितमित प्रिय वचन बोलना, भाषासमिति है। अन्तराय रहित निर्दोष आहार लेना, एषणासमिति है। शरीर, पुस्तक, पींछी, कमण्डलु आदि को देख शोध कर उठाना-रखना; आदाननिक्षेपणसमिति है। त्रस जीव रहित प्रासुक भूमिपर मल-मूत्रादिक छोड़ना, प्रतिष्ठापनसमिति है; - ऐसी ये पाँच समिति हैं।।८२ ।। छह आवश्यक (दोहा) समता वंदन थुति करन, पड़िकौना सज्झाय | काउसग्ग मुद्रा धरन, षडावसिक ये भाय ||८३|| शब्दार्थ :- समता = सामायिक करना । वंदन = चौबीस तीर्थंकरों वा गुरु आदि की वंदना करना । पड़िकोना (प्रतिक्रमण) = लगे हुए दोषों पर पश्चात्ताप करना । सज्झाव = स्वाध्याय । काउसग्ग (कायोत्सर्ग) = खड्गासन होकर ध्यान करना । षडावसिक = छह आवश्यक। ___ अर्थ - सामायिक, वंदना, स्तवन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग - ये साधु के छह आवश्यक कर्म हैं ।।८३ ।। स्थविरकल्पी और जिनकल्पी साधुओं का स्वरूप (सवैया इकतीसा) थविरकलपि जिनकलपि दुविधि मुनि, दोऊ वनवासी दोऊ नगन रहतु हैं। दोऊ अठाईस मूलगुन के धरैया दोऊ, सरव त्यागी है विरागता गहतु हैं।। थविरकलपि ते जिन कै शिष्य सारखा होइ, बैठिकै सभा मैं धर्मदेसना कहतु हैं। एकाकी सहज जिनकलपि तपस्वी घोर, उदै की मरोर सौं परीसह सहतु हैं।।८४|| अर्थ :- स्थविरकल्पी और जिनकल्पी ऐसे दो प्रकार के जैन साधु होते हैं। दोनों वनवासी हैं। दोनों नग्न रहते हैं। दोनों अट्ठाईस मूलगुण के धारक होते हैं। दोनों सर्व परिग्रह के त्यागी-वैरागी होते हैं। परन्तु स्थविरकल्पी साधु शिष्य-समुदाय के साथ में रहते हैं तथा सभा में बैठकर धर्मोपदेश देते और सुनते है; पर जिनकल्पी साधु शिष्य छोड़कर निर्भय अकेले विचरते हैं और महातपश्चरण करते हैं तथा कर्म के उदय से आई हुई बाईस परीषह सहते हैं ।।८४ ।। ___ वेदनीय कर्मजनित ग्यारह परीषह (सवैया इकतीसा) ग्रीषम मैं धूपथित सीत मैं अकंपचित्त, भूखै धरै धीर प्यासै नीर न चहतु हैं। डंस मसकादि सौं न डरैं भूमि सैन करै, बध बंध विथा मैं अडौल है रहतु हैं। चर्या दुख भरै तिन फास सौं न थरहरै, मल दुरगंध की गिलानि न गहतु हैं। (17)
SR No.009450
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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