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________________ १४ गागर में मागर आत्मा को यहाँ "निर्मल" न कहकर "ममल" कहा है। ममल अर्थात् अमल । जिसका मल निकल गया हो, उसे निर्मल कहते हैं और जिसमें मल हो ही नहीं, उसे अमल कहते हैं । अरहंत और सिद्ध भगवान निर्मल हैं और त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा अमल है । ये रागादिभाव आत्मा से अत्यन्त भिन्न हैं। प्राशय यह है कि रागादि भाव हैं अवश्य ; पर वे आत्मा नहीं, आत्मा से अत्यन्त भिन्न हैं । मेरा आत्मा तो इससमय ही अत्यन्त अमल और पूर्ण पवित्र है। मुझे निर्मल या पवित्र होना नहीं है, अपितु मैं अमल और शुद्ध हूँ। यद्यपि यह बात सत्य है कि ये रागादि भाव मेरी ही भूल से मुझमें ही पैदा हुए हैं; तथापि ये मेरे नहीं हैं, ये मैं नहीं हूँ। मेरी भूल भी मात्र इतनी ही है कि मैं स्वयं को भूलकर आजतक पर को अपना मानता रहा हूँ। पर यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि वह भूल भी तो मैं नहीं हूँ, वह भूल भी तो मुझ से भिन्न हो है; क्योंकि भूल तो एक न एक दिन मिट जानेवाली है और मैं तो अनादि-अनन्त अमिट पदार्थ है। अमिट आत्मा मिटनेवाली भूलस्वरूप कैसे हो सकता है ? 'भल मात्र एकसमय की भूल है, पर मैं भूल नहीं है।' - यह नहीं समझना ही सबसे बड़ी भूल है, जिसके कारण यह प्रात्मा स्वयं भगवान होकर भी चार गति और चौरासी लाख योनियों में भटकभटक कर जन्म-मरण के अनन्त दु:ख उठा रहा है । “ममात्मा ममलं शुद्ध" इसमें प्रात्मा को 'अमल' कहकर नास्ति से वात की है और 'शुद्ध' कहकर अस्ति बताई है। मल माने गलतियाँ - विकृतियाँ । प्रात्मा में उत्पन्न होनेवाली विकृतियों और गलतियों की ग्रात्मा में नास्ति है, अतः आत्मा अमल है । यहाँ जब गलतियां नहीं रहेंगी, तव की बात नहीं है । यहाँ तो यह बताया जा रहा है कि अभी जिस समय गलतियां हो रही हैं, उसी समय ग्रात्मा गलतियों से रहित अमल है। ध्यान रखने की बात यह है कि यह बात अपने प्रात्मा की ही बात है, औरों की नहीं; क्योंकि यहाँ तो साफ-साफ लिखा है कि “ममात्मा ममलं' अर्थात् मेरा अात्मा अमल है । यह अकेले तारणस्वामी के यात्मा की भी बात नहीं है, सभी यात्माओं की बात है। जो समझे, उसके प्रात्मा की बात है।
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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