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________________ भूमिका चौदह गुणस्थान जीवों को सर्वज्ञ देव ने उसी गुणस्थान वाला और परिणामों को गुणस्थान कहा है। इन गुणस्थानों से जीव के परिणामों की अशुद्ध व शुद्ध अवस्थाएँ मालूम पड़ती हैं। मोहनीय कर्म के २८ भेद हैं - तीन दर्शन मोहनीय कर्म १. मिथ्यात्व, २. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व और ३. सम्यक्प्रकृति। चारित्र मोहनीय के २५ भेद हैं - १६ कषाय, ९ नो कषाय । अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि ४, प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि ४, संज्वलन क्रोधादि ४, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद - ये नौ नो या इषत् या कम कषाय हैं। - अनन्तानुबन्धी व मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। - केवल अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सासादन गुणस्थान होता है। • मिश्रदर्शनमोहनीय कर्म के उदय से तीसरा मिश्र गुणस्थान होता है। - मिथ्यात्व एक या तीनों दर्शन मोहनीय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से तथा अनन्तानुबन्धी के उदय न होने से चौथा अविरत गुणस्थान होता है; क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन की व स्वरूपाचरण की घातक है। - श्रावकव्रत को रोकने वाले अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय न होने से पाँचवाँ देशव्रत गुणस्थान होता है। - सर्व त्याग को रोकने वाले प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय न होने से प्रमत्तविरत साधु का गुणस्थान होता है। - संज्वलन चार कषाय तथा नौ नोकषाय का मंद उदय होने से अप्रमत्त गुणस्थान होता है। - संज्वलन कषाय के अति मंद उदय होने पर अपूर्वकरण गुणस्थान होता है। - जब चार संज्वलन कषाय व तीन वेद का ही उदय रह जाता है, तब अनिवृत्तिकरण गुणस्थान होता है। - जब केवल सूक्ष्म लोभ का उदय रहता है, तब दसवाँ सूक्ष्मसाम्पराय नाम का गुणस्थान होता है। - सर्व चारित्र मोह के उपशम से ग्यारहवाँ उपशांतमोह व उनके क्षय से क्षीणमोह बारहवाँ गुणस्थान होता है। • चार घातिया कर्मों के क्षय से तेरहवाँ सयोगकेवली व योगों के भी न रहने पर चौदहवाँ अयोगकेवली गुणस्थान होता है। ए चौदस गुनठानं, हुंति ससहाव सुधमप्पानं ।(३) अप्प सरुवं पिच्छदि, अप्पा परमप्प केवलं न्यानं ||६६०।। अन्वयार्थ - (एचौदस गुनठान) ये ऊपर कहे प्रमाण चौदह गुणस्थान (ससहाव सुधमप्पानं हुंति) अपने स्वभाव से शुद्ध आत्मा के ही होते हैं (अप्पा अप्प सरुवं पिच्छदि) जब आत्मा अपने आत्मा के स्वभाव का अनुभव करता है, तब (केवलं न्यानं परमप्प) केवलज्ञान को पाकर परमात्मा हो जाता है। भावार्थ - यद्यपि आत्मा स्वभाव से शुद्ध है; तथापि संसार अवस्था में कर्मों के मैल के निमित्त से ये चौदह श्रेणियाँ (स्थान) जीवों के भावों की हो जाती हैं। इनमें से जिस श्रेणी से यह आत्मा अपने आत्म स्वरूप को अनुभव करने लगता है, उस श्रेणी से चढ़ता हुआ बारहवें के अन्त में केवलज्ञान को पाकर परमात्मा हो जाता है। तत्वं च दव्व कायं, पदार्थ सुध परमप्पानं ।(४) हेय उपादेय च गुनं, वर दंसन न्यान चरन सुधानं ||६६१।। अन्वयार्थ - (तत्वं च दव्व कायं) सात तत्त्व, छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय (पदार्थ सुध परमप्पानं) नव पदार्थ तथा शुद्ध परमात्मा को जानकर (हेय उपादेय च गुनं) जो आत्मा से भिन्न तत्त्व है, वह त्यागने योग्य हेय है। आत्मा का जो गुण है वह ग्रहण करने योग्य उपादेय है (वर दंसन न्यान चरन सुधानं) श्रेष्ठ व शुद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र ही उपादेय हैं। (8)
SR No.009448
Book TitleChaudaha Gunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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