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________________ ४६ गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान चौदह गुणस्थान परमानन्द में मग्न हैं (नंत चतुस्टय मुक्ति संपत्तो) अनन्त चतुष्टय सहित मुक्ति को पहुँचने वाले हैं। भावार्थ - जब आयु कर्म में इतना काल बाकी रह जाता है, जितना काल अ इ उ ऋ लु इन पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण में लगता है, तब अरहन्त परमात्मा का योग बिलकुल निश्चल हो जाता है, योग रहित होने से वे अयोगीजिन कहलाते हैं। यहाँ चौथा शुक्लध्यान होता है। इसी से शेष अघातिया कर्मों का भी क्षय कर यह मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। श्री गोम्मटसार में कहा है - “जो १८००० शीलों के स्वामी हो गए हैं - जिनके पूर्ण सहकार से कर्मों का आस्रव नहीं है, जिनके कर्मरूपी रज निर्जरा को प्राप्त हो रहा है, जिससे वे शीघ्र मुक्त होंगे, ऐसे अयोग केवली होते हैं।" में नित्य मगन हैं, जो साध्य या उसको सिद्ध कर चुके हैं, इसी से सिद्ध कहलाते हैं। यही परमात्मा का वास्तविक स्वरूप है। ए चौदस गुनठानं, रूवं भेयं च किंचि उवएस।(४६) न्यान सहावे निपुनो, कंमेनय विमल सिध नायव्वो।।७०४ ।। अन्वयार्थ - (ए चौदस गुनठानं) ऊपर कहे प्रकार चौदह गुणस्थानों के (रुवं भेयं च किंचि उवएस) स्वरूप का व भेद का कुछ उपदेश किया गया है (न्यान सहावे निपुनो) जो भव्य जीव अपने ज्ञान स्वभाव में लीन होने में प्रवीण हैं वे (कंमेनय विमल सिध नायव्वो) उसी को गुणस्थानों के क्रम से निर्मल सिद्धपना होता है, ऐसा जानना योग्य है। ___ भावार्थ - जो कोई भव्य जीव मोक्ष गए हैं व जाने वाले हैं व अब जा रहे हैं, उनके लिए मोक्षमार्ग पर चलने का एक ही मार्ग है। जब तक इन गुणस्थानों को क्रम से पार करके शुद्ध भावों की उन्नति न की जाएगी तथा बाधक कर्मों का क्षय न किया जाएगा तब तक कोई भी शुद्ध सिद्ध परमात्मा नहीं हो सकता है। श्री गोम्मटसार में कहा है - ___"जो ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से रहित हैं, जो परमानन्द के अनुभव में लीन होकर परम शांत हैं, जो कर्मों के आस्रव के कारण भावों से रहित निरंजन हैं, जो अविनाशी हैं, कृतकृत्य हैं, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधत्व; इन आठ गुणों के धारी हैं तथा लोक के अग्रभाग में सिद्धक्षेत्र में तिष्ठते हैं, वे ही सिद्ध हैं।" गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान सिधं सिध सरूवं, सिधं सिधि सौष्य संपत्तं ।(४५) नंदो परमानंदो, सिधो सुधो मुने अव्वा ।।७०३ ।। भावार्थ - (सिधं सिध सरूवं) सिद्ध भगवान अपने स्वरूप को सिद्ध कर चुके हैं (सिधि सौष्य संपत्तं सिधं) सिद्ध भगवान के होने वाले अनन्त सुख को प्राप्त होकर जो सिद्ध हुए हैं (परमानंदो नंदो) जो परमानंद में आनन्दित हैं। (सुधो सिधो मुनेअव्वा) वे ही शुद्ध निरंजन सिद्ध हैं, ऐसा जानना योग्य है। भावार्थ - जब आठों कर्मों का क्षय हो जाता है तब कर्मजनित सर्व रचना भी दूर हो जाती है। इसलिए सिद्ध महाराज रागादि भावकर्म व शरीरादि नोकर्म से रहित हैं, सर्व बाधा से रहित हैं, स्वाभाविक परमानन्द (25)
SR No.009448
Book TitleChaudaha Gunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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