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________________ चौदह गुणस्थान भावार्थ - सातवाँ अप्रमत्त गुणस्थान उसे कहते हैं कि जहाँ अपने आत्मस्वरूप में किंचित् भी प्रमाद नहीं है । इसीलिए यहाँ पर साधु बिलकुल ध्यानमग्न रहते हैं - निर्विकल्प होकर आत्मा का ध्यान करते हैं। उसके मन में प्रमाण व नय का विचार नहीं आता है। आगम द्वारा द्रव्यों का विचार व शास्त्रों का चिंतवन छठे प्रमत्तविरत गुणस्थान में है, सातवें में नहीं है। यहाँ (सातवें गुणस्थान में) निर्मल धर्मध्यान है, जिससे शुक्लध्यान उत्पन्न हो सकता है । कोई-कोई मुनि अवधिज्ञान को धारने वाले होते हैं। यहाँ अभी चारित्र की अपेक्षा न उपशम भाव है न क्षायिक भाव है, किन्तु क्षायोपशमिक भाव है। बारह कषायों का उदयाभावरूप क्षय तथा उपशम है। शेष चार कषाय व नौ नोकषाय का अति मंद उदय है। ३६ विक्त रुव सदिट्ठी, विगतं संसार सरनि भावं च । (३५) सुधं परमानंद, न्यान सहावेन सुध तवयरनं । । ६९२ ।। अन्वयार्थ - (वित्त रूव सदिट्ठी) अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती साधु आत्मा प्र रूप को भले प्रकार अनुभव करता है (विगतं संसार सरनि भावं च) वह संसार के मार्ग में ले जाने वाले भावों से रहित है (सुधं परमानंद) शुद्ध परम आनन्द का स्वाद लेता है (न्यान सहावेन सुध तवयरनं) ज्ञान स्वभावी आत्मा में ठहरकर शुद्ध आत्म तपनरूप तपश्चरण करता है। भावार्थ - सातवें गुणस्थान में मन, वचन, काय तीनों स्थिर रहते हैं। ध्यान साधु शुद्धोपयोग में ठहरकर अपने आत्मा को स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जानकर उसी में तल्लीन होकर निश्चय तप का साधन करता है और कर्मों की निर्जरा करता है। श्री गोम्मटसार में इसका स्वरूप यह है - “सर्व प्रमादों से रहित - महाव्रत, मूलगुण व शील स्वभाव से मंडित ज्ञानी जब तक उपशम या क्षपकश्रेणी न चढ़े, तब तक ध्यान में तल्लीन रहता है, यही अप्रमत्तविरत साधु है ।" ... (20) अपूर्वकरण गुणस्थान अपूर्वकरण अपूर्व, अवधिं संजुत्त निम्मलं सुधं । ( ३६ ) न्यान सहावं नित्यं, अप्पा परमप्प भाव संजुत्तं । । ६९३ ।। अन्वयार्थ - (अपूर्वकरण) अपूर्वकरण गुणस्थानधारी साधु के (अपूर्वं) पहले कभी नहीं हुए ऐसे अपूर्व उज्वल भाव होते हैं (अवधि संजुत्त निम्मलं सुधं) कोई-कोई अवधिज्ञान सहित निर्दोष शुद्ध भाव के धारी होते हैं (न्यान सहावं नित्यं) वे सदा ज्ञान स्वभाव में मग्न रहते हैं (अप्पा परमप्प भाव संजुत्तं) आत्मा को परमात्मारूप अनुभव करते हैं। भावार्थ - चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों का उपशम करने वाला साधु उपशम श्रेणी व क्षय करने वाला साधु क्षपक श्रेणी चढ़ता है। • द्वितीयोपशम सम्यक्त्वी अनन्तानुबन्धी कषाय को उपशम या उनको अप्रत्याख्यानावरण आदि में विसंयोजन ( पलटन) करके उपशम श्रेणी चढ़ता है। • क्षायिक सम्यक्त्वी भी उपशम श्रेणी चढ़ सकता है। • क्षपक श्रेणी पर तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही चढ़ता है। • श्रेणी का पहला गुणस्थान अपूर्वकरण है। • यहाँ समय-समय अपूर्व अनन्तगुणी विशुद्धता बढ़ती जाती है। पृथक्त्ववितर्कविचार नाम का पहला शुक्लध्यान प्रारम्भ हो जाता है । इस ध्यान में साधु एकाग्र रहता है; तथापि अबुद्धिपूर्वक योग, शब्द व पदार्थ का पलटन हो जाता है । • यहाँ शुद्धोपयोग उन्नतिरूप है । आत्मानुभव की छटा भी अपूर्व है। श्री गोम्मटसार में कहा है "इस गुणस्थान में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम अपूर्व होते हैं।
SR No.009448
Book TitleChaudaha Gunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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