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________________ २६ अविरतसम्यक्त्वगुणस्थान चौदह गुणस्थान भावार्थ - सम्यग्दर्शन की घातक सात कर्म की प्रकृतियाँ हैं। • उपशम सम्यक्त्वी के इनका उपशम रहता है। • क्षायिक सम्यक्त्वी के इनका क्षय करता है। • क्षयोपशम सम्यक्त्वी के केवल सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होता है, शेष छह का उपशम । (सम्यक्प्रकृति का उदय) या चार का क्षय, दो का उपशम । (सम्यक्प्रकृति का उदय) या पाँच का क्षय, एक का उपशम या छह का क्षय; एक का उदय होता है। (यह कृतकृतवेदक में सम्भव है)। इसीलिये अविरत सम्यक्त्वी मोक्ष का पक्का श्रद्धावान होता है। क्षयोपशम सम्यक्त्वी के सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से केवल कुछ मलिनता सम्यक्त्व भाव में रहती है। क्षायिक व औपशमिक सम्यक्त्व निर्मल होते हैं। उपशम सम्यक्त्व की स्थिति जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर्महर्त ही है। क्षयोपशम की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट स्थिति छासठ सागर है। क्षायिक सम्यक्त्व की स्थिति अनन्तकाल है। मोक्ष जाने की अपेक्षा वह अधिक से अधिक और तीन भव लेकर मोक्ष को चला जायेगा। जिन वयनं सद्दहनं, सद्दहै अप्प सुध सभावं।(२१) मति न्यान रूव जुत्तं, अप्पा परमप्प सद्दहै सुधं ।।६७८ ।। अन्वयार्थ - (जिन वयनं सद्दहनं) सम्यग्दृष्टि को जिनवाणी का दृढ़ श्रद्धान होता है (सद्दहै अप्प सुध सभावं) वह आत्मा के शुद्ध स्वभाव का श्रद्धान रखता है (अप्पा परमप्प सुधं सद्दहै) आत्मा को परमात्मा के समान शुद्ध श्रद्धान में लेता है (मति न्यान रूवं जुत्तं) वह मतिज्ञान, श्रुतज्ञान व कोई-कोई साथ ही रूपी पदार्थों को जानने वाले अवधिज्ञान सहित भी होता है। भावार्थ - व्यवहार में जिनवाणी के द्वारा कथन किये हुए तत्त्वों का सम्यक्त्वी दृढ़ श्रद्धानी होता है। निश्चय से वह अपने ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप का श्रद्धानी होता है। सम्यक्त्वी चारों गतियों में होता है। देव व नारकी सर्व तीन ज्ञानधारी सम्यक्त्वी होते हैं। मानव व पशुओं के साधारणतया मतिश्रुत दो ज्ञान होते हैं। किसीकिसी के अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से अवधिज्ञान भी पैदा हो जाता है। ___ तीर्थंकर जन्म से ही तीन ज्ञानधारी होते हैं। इस तत्त्वज्ञानी के भीतर मिथ्याज्ञान बिलकुल नहीं रहता है। वह इन्द्रियों के द्वारा व मन के द्वारा जो कुछ जानता है, उसके भीतर हेय-उपादेय बुद्धि करके मात्र एक निज आत्मा को ही उपादेय मानता है। आरति रौद्रं च विरयं, धम्म ध्यानं च सद्दहै सुधं ।(२२) अविरय सम्माइट्ठी, अविरत गुनठान अव्रितं सुधं ।।६७९ ।। अन्वयार्थ - (आरति रौद्रं च विरयं) सम्यक्त्वी भव्य जीव चार प्रकार के आर्तध्यान व चार प्रकार के रौद्रध्यान से, जो संसार के कारण हैं व परिणामों को मलिन रखने वाले हैं, उनसे विरक्त रहता है (सुधं धम्म ध्यानं च सद्दहै) शुद्धोपयोग रूप धर्म ध्यान की ही रुचि रखता है (अविरय सम्माइट्ठी) ऐसा पाँच व्रतों की प्रतिज्ञा रहित सम्यग्दृष्टि (सुधं अव्रितं) भावों की अपेक्षा शुद्ध परन्तु व्रत रहित होता है (अविरत गुनठान) क्योंकि (वह) अविरत गुणस्थान में है। ___ भावार्थ - अविरत सम्यग्दर्शन गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय होता है; जिससे वह चारित्र धारने को उत्सुक होने पर भी चारित्र को धार नहीं सकता है। वह संसार, शरीर, भोगों से विरक्त होता है, इससे शारीरिक व मानसिक कष्टों के भीतर उलझता नहीं और न सांसारिक सम्पत्ति के लिये हिंसादि पाप कर्मों की अन्यायपूर्वक भावना करता है। वह आर्तध्यान व रौद्रध्यान से विरक्त होता है। उसको धर्म की चर्चा सहाती है, वह धर्मध्यान का प्रेमी होता है। शद्ध आत्मा को अनुभव में लाकर आत्मरस पीने का दृढ़ रुचिवान होता है। श्रद्धानअपेक्षा शुद्ध है, चारित्र अपेक्षा प्रतिज्ञारहित है, इसी से अविरत सम्यग्दर्शन का धारी हो रहा है। श्री गोम्मटसार में कहा है - ___"जो इन्द्रियों के विषयों का न तो त्यागी है और न त्रस-स्थावर प्राणियों की हिंसा का त्यागी है, परन्तु जो जिनेन्द्र कथित तत्त्वों का दृढ़ (15)
SR No.009448
Book TitleChaudaha Gunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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