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________________ चौदह गुणस्थान • • सादि मिथ्यात्वी भी चढ़कर मिश्र गुणस्थानी हो सकता है। चौथे, पाँचवें, छठे से गिर करके भी यह गुणस्थान होता है। अनन्तानुबंधी कषायों के उदय न होने से इसकी प्रवृत्ति तीव्र अन्याय रूप या तीव्र रागरूप या तीव्र पापरूप नहीं होती है। · २२ • यह भद्र परिणामी होता है। परिणामों की जाति शुद्ध नहीं रहती है। निर्मल पानी में कुछ मिट्टी मिला दी जाय, ऐसी गंदली परिणति हो जाती है। " ४ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान अविरै सम्माइट्ठी, जानै पिच्छेई सुध संमत्तं । (१५) षट दव्व पंच कायं, नव पयत्थ सप्त तत्तु पिच्छंतो।।६७२ ।। अन्वयार्थ - ( अविरै सम्माइट्ठी) अविरत सम्यग्दृष्टि जीव चौथे गुणस्थानवर्ती (सुध संमत्तं जानै पिच्छेई) शुद्ध या निश्चय सम्यग्दर्शन का अनुभव करता है (षट दव्व पंच कार्य नव पयत्थ सप्त तत्तु पिच्छंतो) छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नव पदार्थ तथा सात तत्त्व पर श्रद्धान रखता है । भावार्थ - चौथे गुणस्थान का स्वरूप यह है कि व्रत-श्रावक के व मुनि के न होते हुए भी, संयम का नियम न होते हुए भी, जहाँ शुद्ध सम्यग्दर्शन हो वह अविरत सम्यग्दर्शन है। इस गुणस्थानधारी को आत्मा और अनात्मा का सच्चा भेदविज्ञान होता है । वह शुद्ध आत्मा को पहचानता है, आत्मा के रस का स्वाद भी लेता है । व्यवहार में उसको छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नव पदार्थ व जीवादि सात तत्त्वों का जिनेन्द्र के आगम के अनुसार दृढ़ / पक्का श्रद्धान होता है। अप्पसरूवं पिच्छदि, वर दंसन न्यान चरन पिच्छंतो। (१६) सहकारे तव सुधं, हेय उपादेय जानए निस्चं ।।६७३ ।। (13) अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान अन्वयार्थ - सम्यग्दृष्टि जीव (अप्प सरूवं पिच्छदि) आत्मा के स्वरूप का अनुभव करता है (वर दंसन न्यान चरन पिच्छंतो) निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र का अनुभव करता है। (सहकारे तव सुधं) सम्यग्दर्शन की सहायता से शुद्ध तप करता है (हेय उपादेय निस्चं जानए) त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य तत्त्व को निश्चय से यथार्थ जानता है। २३ भावार्थ - सम्यग्दृष्टि जीव को भेद विज्ञान होता है, इसलिए वह निज आत्मा के स्वभाव को ग्रहण कर लेता है और उसके सिवाय सर्व पर-द्रव्य, पर-गुण, पर-पर्याय का त्याग कर देता है। वह जानता है कि निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आत्मा ही है। इसलिए सर्व पर-पदार्थों से रागद्वेष त्याग कर परम समता भाव में लीन होकर निश्चिन्त होकर निज आत्मा का ही अनुभव करता है। वह तप भी आत्मशुद्धि के लिए ही करता है। वह भूलकर भी निदान नहीं करता है। सुधं सुध सहावं, देवं देवाधि सुध गुर धम्मं । (१७) जानै निय अप्पानं, मल मुक्कं विमल दंसनं सुधं ॥ ६७४ ।। अन्वयार्थ - (सुधं सुध सहावं देवाधिदेवं) सम्यग्दृष्टि जीव वीतराग व शुद्ध स्वभावधारी देवों के देव श्री अर्हंत-सिद्ध भगवान को देव (सुध गुर धम्मं) शुद्ध निर्दोष परिग्रह त्यागी को गुरु और वीतराग विज्ञानमयी शुद्ध धर्म को धर्म निश्चय रखता है (निय अप्पानं जानै) अपने आत्मा को पहचानता है (मल मुक्कं विमल सुधं दंसनं) उसके ही पच्चीस मल दोष रहित निर्मल शुद्ध सम्यग्दर्शन होता है। भावार्थ -सम्यग्दृष्टि जीव ही सच्चे-देव-गुरु धर्म को पहचानता है। आत्मा में आत्मरूप रहने वाले अर्हत-सिद्ध को देव, आत्मरमी निर्ग्रथ को साधु, आत्मानुभव को धर्म जानता है, अपने आत्मा को परमात्मा के समान निर्विकार ज्ञातादृष्टा अनुभव करता है, सम्यक्त्व को २५ दोषों से बचाता है। शुद्ध सम्यग्दर्शन का आचरण करता है ।
SR No.009448
Book TitleChaudaha Gunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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