SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहभावना : एक अनुशीलन इस महापाप से बचने का एकमात्र यही उपाय है कि हम वस्तु की स्वतंत्रता का अविराम चिन्तन करें, मनन करें। निरन्तर चलनेवाली यह चिन्तनप्रक्रिया ही अन्यत्वभावना है। __ इस संदर्भ में पण्डितप्रवर जयचन्दजी छाबड़ा हमारा मार्गदर्शन इसप्रकार करते हैं - "अपने-अपने सत्त्व कूँ, सर्व वस्तु विलसाय। ऐसे चितवै जीव तब, परतें ममत न थाय॥ 'प्रत्येक वस्तु स्वतंत्ररूप से अपनी-अपनी सत्ता में विलास कर रही है, किसी का किसी में कोई हस्तक्षेप नहीं है; क्योंकि वे वस्तुएँ सम्पूर्णतः भिन्नभिन्न है' - जब जीव इसप्रकार का चिन्तवन करता है, तब उसके परपदार्थों से ममत्व उत्पन्न नहीं होता।" ___ 'संयोग अनित्य हैं, अशरण हैं, असार हैं, साथ नहीं देते, हमसे अत्यन्त भिन्न हैं' - यह सब जान लिया, अच्छी तरह जान लिया; अब क्या करें? बस इनका ही विचार, इनका ही चिन्तन; कब तक चलेगा यह सब और क्या होगा इससे? ___कुछ नहीं, मात्र इतने से कुछ नहीं होगा। यह तो मात्र विकल्पात्मक प्रारम्भ है, इससे तो मात्र जमीन तैयार होती है, बीज तो अब डालना है। बीज डाले बिना तैयार जमीन भी कुछ फल नहीं दे सकती; पर ध्यान रहे पत्थर पर पड़ा बीज भी अंकुरित नहीं होता। जब वह अंकुरित ही नहीं होता तो फिर पल्लवित होने का, पूर्ण होने का, सफल होने का अवकाश ही कहाँ रहता है ? ___ हाँ, तो संयोगों की अनित्यता, अशरणता, असारता, असंगता, पृथकता; चिन्तन-मननपूर्वक भलीभाँति जान लेने पर इन्हें धारण कर लेना है, धारणा में ले लेना है, लब्धिज्ञान में डाल देना है, सुरक्षित कर देना है; इन पर से उपयोग हटा लेना है। उपयोग को इन पर से हटाकर इनसे भिन्न नित्य, परमशरणभूत, सारभूत, एक निज शुद्धात्मतत्त्व में लगाना है, लगाये रहना है। चिन्तन-मनन के विकल्पों से भी विरत होकर मात्र निज को ही जानते रहना है, मात्र जानते
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy