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________________ अन्यत्वभावना : एक अनुशीलन भेदविज्ञान सम्बन्धी विकल्पों से भी भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी त्रिकाली ध्रुव निज परमात्मतत्त्व को पहिचानना चाहिए। इन देहादिरूप मन्दिर में अखण्डरूप निज चेतनप्रभु विराजमान है। सम्यक् श्रुतज्ञान प्रमाण से प्रमाणित अर्थात् जाने गये उस चेतनप्रभु को ही हृदय में धारण करना चाहिए, उसी का विचार करना चाहिए, चिन्तन करना चाहिए, उसी में ही मगन हो जाना चाहिए, लीन हो जाना चाहिए; उस चेतनप्रभु की साधना की-आराधना की यही विधि है, ऐसी ही विधि है।" उक्त छन्द में आत्मसाधना की विधि का व्यवस्थित क्रम से विवेचन किया गया है, साधक के लिए प्रेरणाप्रद मार्गदर्शन दिया गया है। छन्द की अन्तिम पंक्ति में स्पष्ट कहा गया है कि आत्मा के परमपद को साधने के लिए इसप्रकार की विधि अपनाना चाहिए। पर से भिन्नता का ज्ञान ही भेदविज्ञान है और पर से भिन्न निज चेतन भगवान का जानना, मानना, अनुभव करना ही आत्मानुभूति है, आत्मसाधना है, आत्माराधना है। सम्पूर्ण जिनागम और जिन-अध्यात्म का सार इसी में समाहित है। अन्यत्वभावना के चिन्तन की चरम परिणति भी यही है। ___ अनादिकाल से यह आत्मा पर को अपना मानकर उसी में रच-पच रहा है; इसीकारण चार गति और चौरासीलाख योनियों में परिभ्रमण करता हुआ अनन्त दुःख भी भोग रहा है। पर से एकत्व और ममत्व के कारण ही अपने को सही रूप में जान भी नहीं पा रहा है, पहिचान भी नहीं पा रहा है। पर से एकत्व और ममत्व तोड़ने के लिए पर से अन्यत्व का चिन्तन जिस गहराई से होना चाहिए; जबतक उस गहराई से नहीं किया जायेगा, तबतक पर के प्रति होनेवाले एकत्व और ममत्व को नहीं तोड़ा जा सकता है, इसके लिए सतत् प्रयास अत्यन्त आवश्यक है। पर से एकत्व और ममत्व तोड़ने का एकमात्र उपाय प्रत्येक वस्तु की स्वतंत्र सत्ता का सम्यक् बोध ही है। अपनी सीमा में सर्वप्रभुतासम्पन्न किसी भी वस्तु को अन्यवस्तु का मानना-जानना महामोह है, महा-अज्ञान है, मिथ्यात्व नामक महापाप है।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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