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________________ ६२ एकत्वभावना : एक अनुशीलन इसी तथ्य को निम्नांकित छन्द में और भी अधिक मार्मिक ढंग से उभारा गया है " जन्मे-मरे अकेला चेतन सुख-दुख का भोगी । और किसी का क्या इक दिन यह देह जुदी होगी ॥ कमला चलत न पैंड जाय मरघट तक परिवारा। अपने - अपने सुख को रोवे पिता पुत्र दारा ॥ ज्यों मेले में पंथी जन मिलि नेह ज्यों तरुवर पै रैन बसेरा पंछी आ कोस कोई दो कोस कोई उड़-उड़ फिर थक हारे। जाय अकेला हंस संग में कोई न पर मारे ॥" इसीप्रकार का भाव आचार्य पूज्यपाद ने भी सर्वार्थसिद्धि में व्यक्त किया है। धरें फिरते । करते ॥ जैसाकि संसारभावना के अनुशीलन में स्पष्ट किया जा चुका है कि बारह भावनाओं के चिन्तन का एकमात्र उद्देश्य दृष्टि को संयोगों पर से हटाकर स्वभाव की ओर ले जाना है; क्योंकि संयोगाधीन दृष्टि ही संसारदुखों का मूल है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए एकत्वभावना में इस तथ्य की ओर बार-बार ध्यान आकर्षित किया जाता है कि साथी की खोज कभी सफल होनेवाली नहीं है; क्योंकि साथ की बात ही असंभव है, वस्तुस्थिति के विरुद्ध है । भले ही क्षणभंगुर सही, अशरण सही, निरर्थक सही, पर संयोग है तो सही; किन्तु साथी तो जगत में कोई है ही नहीं। परद्रव्यों का संयोग है, पर साथ नहीं । परद्रव्य संयोगी हैं, परन्तु साथी नहीं । संयोग और साथ में अन्तर है। संयोग तो मात्र संयोग है, पर साथ में सहयोग अपेक्षित है। संयोग में सहयोग शामिल करने पर साथ होता है। गणित की भाषा में हम इसे इसप्रकार व्यक्त कर सकते हैं - संयोग + सहयोग =साथ । दो व्यक्तियों का एक स्थान पर एकत्रित होना संयोग है, उनमें परस्पर सहयोग होना साथ है । १. कविवर मंगतराय कृत बारह भावना
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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