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________________ संसारभावना : एक अनुशीलन संसारदुःखों से मुक्त होने के लिए मुक्ति के मार्ग का पथिक होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । स्वभावसन्मुखता के अतिरिक्त और कोई मुक्ति का मार्ग नहीं है; क्योंकि दृष्टि के संयोगविमुख और स्वभावसन्मुख होते ही स्वभाव के साधन संवर-निर्जरा की उत्पत्ति होकर वृद्धि आरम्भ हो जाती है और कालान्तर में यही संवर- निर्जरारूप स्वभाव के साधन वृद्धि को प्राप्त होते हुए मोक्षस्वरूप सिद्धत्व में परिणमित हो जाते हैं । ५६ सिद्धत्व की प्राप्तिरूप पावन उद्देश्य से ही अनित्यभावना में संयोगों की अनित्यता एवं स्वभाव की नित्यता, अशरणभावना में संयोगों की अशरणता एवं स्वभाव की शरणभूतता तथा संसारभावना में संयोगों की निरर्थकता (असारता) एवं स्वभाव की सार्थकता का भरपूर दिग्दर्शन कराया जाता है । सर्वप्रथम अनित्यभावना में स्वभाव की नित्यता एवं संयोगों की अनित्यता बताकर दृष्टि को संयोगों पर से हटाकर स्वभाव की ओर जाने के लिए प्रेरित किया जाता है; पर मोह-राग-द्वेष के जोर से अज्ञानी और राग-द्वेष के जोर से ज्ञानी भी जब अनित्य संयोगों की सुरक्षा के लिए शरण तलाशने लगते हैं तो अशरणभावना में संयोगों की अशरणता एवं स्वभाव की परमशरणभूतता का परिज्ञान अनेक युक्तियों एवं उदाहरणों के माध्यम से कराया जाता है; परन्तु जब वे आकुल-व्याकुल हो प्राप्त संयोगों में ही सुख की कल्पना करने लगते हैं तो संसारभावना में सुख प्राप्ति में संयोगों की निरर्थकता एवं स्वभाव की सार्थकता का ज्ञान कराया जाता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि भावनाओं की चिन्तन- प्रक्रिया में पवित्र उद्देश्य की पूर्ति करनेवाला एक क्रमिक विकास है; अतः यह अत्यन्त स्पष्ट है कि संसारभावना अनित्य व अशरणभावना में चिन्तित विषयों का पिष्टपेषण नहीं है, अपितु चिन्तन-प्रक्रिया का अगला और आवश्यक कदम है। यह बात भी अत्यन्त स्पष्ट है कि संसार भावना में संसार की असारता अर्थात् संयोगों की निरर्थकता तथा आत्मस्वभाव की सारभूतता अर्थात् सार्थकता का विचार किया जाता है, चिन्तन किया जाता है ।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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