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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन इस सन्दर्भ में कविवर बुधजनकृत छहढाला में समागत संसारभावना सम्बन्धी निम्नांकित छन्द द्रष्टव्य है - - "यह संसार असार महान, सार आप में आपा जान । सुख दुख दुख सुख होय, समता चारों गति नहिं कोय ॥ ५५ यह संसार महाअसार है, अपनी आत्मा ही महान है, सार है। इस चतुर्गतिभ्रमणरूप संसार में क्रमश: सांसारिक सुख से दुःख और दुःख से सांसारिक सुख तो होते ही रहते हैं, पर चारों ही गतियों में समतारूपी असली सुख कहीं भी नहीं है। " उक्त छन्द में संसार को असार और आत्मा को सारभूत बताया गया है। यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि उक्त छन्द में संसार में दुःख के साथ सुख होना भी बताया गया है; जबकि पण्डित दौलतरामजी द्वारा रचित छहढाला में साफ-साफ लिखा है 1 "सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा।" हाँ भाई ! लिखा तो है; पर वहाँ समतारूपी सुख की बात है, समतारूपी सुख अर्थात् वास्तविक सुख तो संसार में रंचमात्र भी नहीं है। जरा ध्यान से देखो! यह बात तो बुधजनजी ने भी स्पष्टरूप से स्वीकार की है कि 'समता चारों गति नहिं कोय' । उन्होंने संसार में जिस सुख को स्वीकार किया है; वह तो पुण्योदय में प्राप्त होनेवाले विषयसुख की बात है, वह तो कहने मात्र का सुख है। वस्तुतः तो वह सुख है ही नहीं, दुःख ही है। बात यह है कि लोक में अतीन्द्रिय आनन्द के साथ विषयभोग को भी तो सुख ही कहा जाता है; अतः इस बात की सावधानी रखना अत्यन्त आवश्यक है कि सुख शब्द का प्रयोग कहाँ किस अर्थ में हुआ है । संयोगों की क्षणभंगुरता, अशरणता एवं निरर्थकता का भान हुए बिना दृष्टि संयोगों पर से नहीं हटेगी; इसीप्रकार स्वभाव की महिमा आए बिना दृष्टि स्वभावसन्मुख नहीं होगी। ध्यान रहे दृष्टि के स्वभावसन्मुख होने से ही सम्यग्दर्शनादि स्वभावभावों (मोक्षमार्ग) की उत्पत्ति और वृद्धि होती है ।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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