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________________ अनुप्रेक्षा : एक अनुशीलन संसारी जीव के मुख्यरूप से स्त्री- पुत्र, मकान-जायदाद, रुपया-पैसा और शरीर का ही संयोग है; इनमें सर्वाधिक नजदीक का संयोगी पदार्थ शरीर ही है । अनित्यभावना में इनकी अनित्यता, अशरणभावना में इनकी अशरणता तथा संसारभावना में इनकी दुःखरूपता व निःसारता का चिन्तन किया जाता है । स्वयं में एकत्व और संयोगों से भिन्नत्व का विचार क्रमशः एकत्व और अन्यत्व भावना में होता है। संयोगों (शरीर) की मलिनता, अपवित्रता का चिन्तन ही अशुचिभावना है। १४ इसप्रकार हम देखते हैं कि उक्त भावनाओं के चिन्तन का विषय यद्यपि संयोग ही हैं; तथापि चिन्तन की धारा का स्वरूप इसप्रकार है कि संयोगों से विरक्ति हो, अनुरक्ति नहीं । अतः ये छह भावनाएँ मुख्यरूप से वैराग्योत्पादक हैं। आस्रव, संवर और निर्जरा तो स्पष्टरूप से तत्त्वों के नाम हैं; अतः इनका चिन्तन सहज ही तत्त्वपरक होता है । बोधिदुर्लभ और धर्मभावना में भी रत्नत्रयादि धर्मों की चर्चा होने से चिन्तन तत्त्वपरक ही रहता है। लोकभावना में लोक की रचना सम्बन्धी विस्तार को गौण करके यदि उसके स्वरूप पर विचार किया जाय, तो उसका चिन्तन भी निश्चितरूप से तत्त्वपरक ही होगा । पण्डित दौलतरामजी कृत छहढाला में समागत लोकभावनासम्बन्धी चिन्तन इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है, जो इसप्रकार है - "किनहू न करौ न धेरै को, षड्द्रव्यमयी न हरै को । सो लोक माँहि बिन समता, दुख सहे जीव नित भ्रमता ॥ छहद्रव्यों का समूह है स्वरूप जिसका ऐसा यह लोक न तो किसी ने बनाया है, न कोई इसे धारण किये है और न कोई इसका विनाश ही कर सकता है । इसप्रकार अनादि - अनन्त स्वयंप्रतिष्ठित इस लोक में यह जीव समता के बिना भ्रमण करता हुआ अनादिकाल से ही अनन्त दुःख उठा रहा है।" १. छहढाला, पाँचवीं ढाल, छन्द १२ -
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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