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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १७३ "समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं। तह चारित्तं धम्मो सहाव आराहणा भणिया॥३५७॥ समता, माध्यस्थ्यभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र और स्वभाव की आराधना - इन सबको धर्म कहा जाता है।" विश्वविख्यात समस्त दर्शनों में जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है, जो निज भगवान आत्मा की आराधना को धर्म कहता है; स्वयं के दर्शन को सम्यग्दर्शन, स्वयं के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान और स्वयं के ध्यान को सम्यक्चारित्र कहकर इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ही वास्तविक धर्म घोषित करता है। ईश्वर की गुलामी से भी मुक्त करनेवाला अनन्त स्वतंत्रता का उद्घोषक यह दर्शन प्रत्येक आत्मा को सर्वप्रभुतासम्पन्न परमात्मा घोषित करता है और उस परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय भी स्वावलम्बन को ही बताता है। यद्यपि प्रत्येक आत्मा स्वभाव से स्वयं परमात्मा ही है; तथापि यह अपने परमात्मस्वभाव को भूलकर स्वयं पामर बन रहा है। पर्यायगत पामरता को समाप्त कर स्वभावगत प्रभुता को पर्याय में प्रगट करने का एकमात्र उपाय पर्याय में स्वभावगत प्रभुता की स्वीकृति ही है, अनुभूति ही है। स्वभावगत प्रभुता की पर्याय में स्वीकृति एवं स्वभावसन्मुख होकर पर्याय की स्वभाव में स्थिरता ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है, धर्मभावना है। पर्याय की पामरता के नाश का उपाय पर्याय की पामरता का चिन्तन नहीं, स्वभाव के सामर्थ्य का श्रद्धान है, ज्ञान है। स्व-स्वभाव के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान का नाम ही धर्म है; धर्म की साधना है, आराधना है, उपासना है, धर्म की भावना है, धर्मभावना है। निज भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली यह धर्मभावना, धर्मरूपपर्याय निज भगवान आत्मा का ही वरण करे, निज भगवान आत्मा का ही शरण ग्रहण करे और सम्पूर्ण जगत धर्ममय हो जाय, शर्ममय (सुखमय) हो जाय - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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