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________________ लोकभावना : एक अनुशीलन धरता ॥ आशा । पाप-पुण्य सों जीव जगत में नित सुख-दुख भरता । अपनी करनी आप भरै शिर औरन के मोहकर्म को नाश मेटकर सब जग की निजपद में थिर होय लोक के शीश करो वासा ॥ अलोकाकाश में यह षट्द्रव्यमयी लोक निराधार (स्वयं के आधार पर) स्थित है और कमर पर हाथ रखे पुरुष के आकार का है। इस लोक का कोई भी कर्त्ता - हर्त्ता नहीं है; क्योंकि यह अनादि-अनन्त अमिट है। इस लोक में कर्म की उपाधि के कारण जीव और पुद्गल ही नृत्य कर रहे हैं, पाप-पुण्य के वश जीव निरन्तर दुख-सुख भोग रहा है। यद्यपि यह जीव अपनी करनी का फल स्वयं ही भोगता है; तथापि उसे दूसरों के शिर मढ़ता रहता है। यह वृत्ति ही इसके दुःखों का परिभ्रमण का मूल कारण है। " अतः हे भव्यप्राणियों ! यदि अपना हित चाहते हो तो सम्पूर्ण जगत की सभी आशाओं को मेटकर और मोहकर्म का नाश करके निज पद में स्थिर हो जाओ। यदि ऐसा कर सके तो तुम्हारा आवास लोक के शिखर पर होगा। तात्पर्य यह है कि तुम्हें सिद्धपद की प्राप्ति होगी; क्योंकि सिद्ध भगवान ही लोकशिखर पर विद्यमान सिद्धशिला पर विराजते हैं । " १४२ उक्त छन्द में लोक का आकार, स्वरूप, स्थान, स्थिति, स्वाधीनता, अकृत्रिमता, अनादि - अनन्तता आदि सब कुछ आ गया है; साथ ही इस लोक में जीव के परिभ्रमण का कारणरूप कर्त्ताबुद्धि और दूसरों के माथे स्वयंकृत अपराधों को मढ़ने की अनादिकालीन वृत्ति- दुष्प्रवृत्ति का परिचय भी दे दिया गया है । अन्त में जगत की आशा छोड़ने और मोहकर्म के नाश करने की पावन प्रेरणा देते हुए अपने त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में स्थिर होने का अनुरोध भी किया गया है और उसका फल सिद्धपद की प्राप्ति बताकर प्रेरणा को सबल बना दिया गया है। इसप्रकार हम देखते हैं कि जो अति-आवश्यक था, वह सब एक ही छन्द में बड़े ही प्रभावक ढंग से समेट लिया गया है। निर्जराभावना के उपरान्त आनेवाली इस लोकभावना को लोकशिखर सिद्धशिला (मोक्ष) से जोड़कर
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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