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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन इस पुरुषाकार चौदह राजू ऊँचे लोक में यह जीव आत्मज्ञान बिना अनादिकाल से ही भ्रमण कर रहा है।" १४१ उक्त दोनों भावनाओं में नीचे की पंक्ति का भाव तो लगभग समान ही है; क्योंकि दोनों में ही यह बताया गया है कि जीव अनादि से ही लोक में भ्रमण करता हुआ दुःख भोग रहा है । अन्तर मात्र इतना है कि एक में दुःख का कारण समताभाव का अभाव बताया गया है और दूसरी में सम्यग्ज्ञान का अभाव, पर इसमें कोई विशेष बात नहीं है; किन्तु ऊपर की पंक्ति में जो लोक के स्वरूप का प्रतिपादन है, वह भिन्न-भिन्न है। एक में लोक को स्वनिर्मित, स्वाधीन, अविनाशी और षट्द्रव्यमयी बताया गया है; तो दूसरी में चौदह राजू ऊँचा पुरुषाकार निरूपित किया गया है। यह बात पहले भी स्पष्ट की जा चुकी है कि लोकभावना में छहद्रव्यों के समुदायरूप लोक की बात भी चिन्तन का विषय बनती है और लोक की भौगोलिक स्थिति भी । लोकभावना की विषय-वस्तु संबंधी उक्त दोनों प्रकारों में से एक ने प्रथम प्रकार को एवं दूसरे ने दूसरे प्रकार को पकड़कर अपनी बात प्रस्तुत कर दी है। दो पंक्तियों के छोटे से छन्द में इससे अधिक और कहा भी क्या जा सकता था? पर एक बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि लोकभावना की जो मूल भावना है, वह दोनों में समानरूप से विद्यमान है। मूल बात लोक के स्वरूप प्रतिपादन की नहीं, सम्यग्ज्ञान और समताभाव बिना जीव के अनादि परिभ्रमण की है; क्योंकि सम्यग्ज्ञान और समताभाव की तीव्रतम रुचि जागृत करना ही इन भावनाओं के चिन्तन का मूल प्रयोजन है। लोकभावना संबंधी सम्पूर्ण विषय-वस्तु एवं मूलभूत प्रयोजन की बात मंगतराय कृत बारह भावनाओं में समागत लोकभावना में और भी अधिक मुखरित हुई है, जो इसप्रकार है - "लोक अलोक अकाश माँहि थिर निराधार जानो । पुरुषरूप कर कटी भये षट्द्रव्यन सों मानो ॥ इसका कोई न करता हरता अमिट अनादी है। जीव रु पुद्गल नाचे यामें कर्म उपाधी है ॥
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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